Saturday, September 10, 2011

मन हर लेने वाली एक मीठी आवाज़




ये मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि अग्रणी गायक मुकेशजी द्वारा गाये जाने वाले गीत को गाने का मौक़ा मुझे अनायास मिला और ये वाक़ई मेरे लिये किसी बड़े सम्मान से कम बात नहीं थी कि स्वयं मुकेशजी ने मेरी आवाज़ को सराहा. ये बात बता रहे हैं विख्यात पार्श्वगायक मनहर उधार जिन्हें संगीतकार कल्याणजी आनंदजी ने फ़िल्म विश्वास (जीतेन्द्र-अपर्णा सेन/१९६९) के लिये चंद पंक्तियाँ गाने लिये कहा और उसे रेकॉर्ड कर के जब मुकेशजी को सुनाया गया तो उन्होंने कहा कि इसी आवाज़ में गीत की फ़ायनल रेकॉर्डिंग कीजिये. मुकेशजी की सदाशयता से फ़िल्म संगीत को मनहर नाम की मीठी आवाज़ मिल गई.वह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था;बोल थे आपको हमसे बिछडे हुए एक ज़माना बीत गया. बाद में मनहर ने फ़िल्म अभिमान में लताजी के साथ गाये गये युगल गीत लुटे कोई मन का नगर बन मेरा साथी और फ़िल्म कुरबानी के लिये गाये गाये हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे – गीत से देश भर में एक लोकप्रिय नाम बन गये. मालूम हो कि उधास परिवार के चश्मे-चिराग़ मनहर,पंकज और निर्मल संगीत की दुनिया में सुपरिचित नाम हैं.

जब मनहर भाई से मैंने रफ़ी साहब के बारे में पूछा तो उन्होंने ये बताते हुए चौंका दिया कि उषा खन्ना के संगीत बनी फ़िल्म दीदार और कल्याणजी-आनंदजी की फ़िल्म राजा-साब में उन्हें रफ़ी साहब के साथ गाने का मौक़ा मिला था. अभिमान में लताजी के साथ क्या अनुभव रहा तो मनहर भाई बहुत भावुक होते हुए बोले कि दीदी की सोच और विचार में जो गहराई है उसका अहसास उनके निकट जाए बिना नहीं हो सकता. अपने करियर की शुरूआत में जब  मनहर लताजी के साथ कुछ स्टेज शो कर रहे थे और तब लताजी ने आगे होकर एस.डी.बर्मन को फ़िल्म अभिमान के लिये इस नई आवाज़ का नाम सुझाया. उल्लेखनीय है कि मनहर उधास गुजराती संगीत का एक बड़ा नाम है और अब तक उनकी गुजराती ग़ज़लों के २७ एलबम निकल चुके हैं. इन एलबम्स को गुजराती संगीतरसिकों ने अपार स्नेह दिया है और बिक्री के लिहाज़ से भी अदभुत सफलता हुई है.

गुजरात से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर सन १९६९ में मुबई आए मनहर के गीत तू इस तरह से मेरी ज़िन्दगी में शामिल है ( आप तो ऐसे न थे) तू मेरा जानू है (हीरो) हर किसी को नहीं मिलता (जानबाज़) तेरा नाम लिया( राम-लखन) सुर्ख़ियों में बने रहे हैं. विनम्रता और स्वभाव की मधुरता मनहर को तथाकथित सेलिब्रिटि कल्चर से दूर करती है और वे हमेशा एक ज़हीन इंसान की तरह पेश आते हैं और मिलने वाले को खुलूस और आत्मीयता से भर देते हैं. उनसे मिलकर यह अहसास भी तारी हो जाता है कि मीठी आवाज़ के लिये वैसी तबियत भी बहुत काम आती है.

(मनहर उधास के साथ ये चित्र ख़ाकसार का है.नब्बे के दशक में मनहर भाई एक प्रस्तुति के लिये इन्दौर आए थे)


Friday, September 9, 2011

हिन्दी नाटक जैसा है;वैसा ही होना था



ज़माना अपने ढंग से चलेगा. नाहक ही उसमें वह मत तलाशिये जो बीत चुका है या जो बदलता जा रहा है. समझदारी इसी में है स्थितियों को जस का तस कुबूल करें और उसे वक़्त का तक़ाज़ा मान कर आगे बढ़ते जाएं.अच्छी ज़ुबान,कविता,अदाकारी और परिश्रम के मुरीद अब भी हैं लेकिन उनसे काम करवाने में दिलचस्पी किसी को नहीं नहीं है.अब क्रियेटिविटि का मुस्तकबिल तो  प्रति-सैकंड के इश्तेहार और टीआरपी कर रहे हैं.

ये विचार हैं सीधी,सच्ची और खरी बात करने वाले दिग्दर्शक और रंगमंच धारावाहिकों के सुपरिचित अभिनेता राजेन्द्र गुप्ता के जो  निजी प्रवास पर इन्दौर आए हुए हैं. क्रिश्चियन कॉलेज में ब्रांसन हॉल के सामने प्राचार्य अमित डेविड के निवास पर राजेन्द्रजी से बतियाना हिन्दी रंगमंच और टीवी सीरियल्स की उन हक़ीक़तों से रूबरू होना है.उनका मानना है कि हिन्दी नाटक जिस हाल में है वह वैसा ही होना था और इसके लिये किसी को कोसने की ज़रूरत नहीं है.जो लोग रंगमंच से फ़िल्म/टीवी की ओर रूख कर रहे हैं उन्हें वैसा करने का हक़ है.

 राजेन्द्रजी ने मुखरता से कहा कि हम भागते समय में जी रहे  हैं उसमें और ख़ासकर धारावाहिकों में हमसे काम लेने वाला निर्देशक कम व्यापारी ज़्यादा है.वह एक प्रोडक्ट की तरह अपना माल बेचना चाहता है.आपकी मर्ज़ी हो तो उसके काम का हिस्सा बनिये वरना उसके पास विकल्पों की कमी नहीं.यही वजह है कि आजकल धारावाहिकों में कलाकार के नाम भी नहीं दिये जा रहे हैं. निर्माताओं का मानना है कि यदि आपके काम में दम तो आपको अपने आप काम मिलता जाएगा.राजेन्द्रजी ने बताया मैं अपनी तासीर और तबियत को ध्यान में रखते हुए काम करता हूँ और अभिनय का आनंद लेता हूँ. इन्दौर,उज्जैन और भोपाल में नाट्य शिविर और प्रस्तुतियाँ कर चुके इस कलाकार ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से सन ७२ में ग्रेज्युएशन के बात सन ८५ तक दिल्ली के रंगमच पर धूम मचाई.यही वह  वक़्त था जब सुधा और ओम शिवपुरी आधे-अधूरे की क़ामयाबी को लेकर मुम्बई रूख कर चुके थे और प्रयोगधर्मी सिनेमा में हाथ आज़माने के बहाने ओम पुरी और नसीरूद्दीन शाह जैसे कलाकारों को भी मुम्बई में ही अपना रोशन मुस्तक़बिल नज़र आ रहा था; राजेन्द्र फ़िर भी दिल्ली में बने रहे और बांझरात और चोर के घर मोर जैसे सशक्त नाटकों में अपनी पहचान मुकम्मिल कर चुके थे. पानीपत से निकलकर दिल्ली में अपने करियर का आसमान तलाशने वाले राजेन्द्रजी ने रमेश बख्शी की  देवयानी का कहना है और सुरेन्द्र वर्मा की  सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण जैसी बोल्ड स्किप्ट्स बतौर निर्देशक हाथ में ली .सुरेका सीकरी (बालिका वधु की मा सा.) जैसी सशक्त अभिनेत्री का साथ और राजेन्द्रजी की मेहनत रंग लाई वे हिन्दी रंगमंच के क़ामयाब निर्देशकों में शुमार किये जाने लगे.














फ़िल्में एक्टर के नाम से बिकतीं हैं और नाटक डायरेक्टर के नाम से कहना है इंतज़ार,चंद्रकांता और बालिका वधु जैसे धारावाहिकों के ज़रिये मशहूर हो चुके राजेन्द्र गुप्ता का जिन्हें शास्त्रीय संगीत गायिका किशोरी अमोणकर को सुनना बेहद पसंद है और वे कहते हैं कि यही वह कलाकार है जो शून्य में से स्वर सिरजतीं हैं. राजेन्द्रजी को बेगम अख़्तर सुनना अच्छा लगता है और वे ख़ुद अच्छे ख़ासे कवि हैं और कविताओं को सुनने-सुनाने के मजमें में शिरक़त करने के लिये रतजगा भी कर सकते हैं.राजेन्द्र गुप्ता एक ऐसा इंसान है जो व्यापारिक पृष्ठभूमि का होकर भी बेफ़िक्री से रहता है. मुम्बईवासी होने के बावजूद वहाँ की महानगरीय भागमभाग को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता और वर्तमान को सबसे ज़्यादा आनंददायक मानकर ज़िन्दगी की प्लानिंग में विश्वास नहीं करता.कलाकार को होना भी तो ऐसा ही चाहिये न....?