मैंने
कभी सोचा नहीं था कि ज़िन्दगी में ऐसी क़ामयाबियाँ
चल कर मुझ तक आएंगी.दर-असल आप चाहते हुए भी जीवन को बहुत कुछ नियोजित नहीं कर सकते.मेरे
ख़ानदान में कभी कोई सुरों का शैदाई नहीं था. बस स्कूल में न जाने कैसे डिबेट और एक्टिंग
की ओर रुझान हुआ और गाड़ी चल पड़ी. अपनी ग़लतियों और ख़ूबियों का आत्म-निरीक्षण करते करते
यहाँ तक आ गया हूँ.जैसा भी हूँ बहुत संतुष्ट हूँ.
जानेमाने अभिनेता,गीतकार,संगीतकार,गायक,पटकथा लेखक पीयूष मिश्रा से बात करें तो एक ऐसी रूहानियत की जमीन बनती जाती है जो ग्लैमर वर्ल्ड के किसी और
स्टार से बतियाते हुए नहीं बनती. उसकी वजह है ग्वालियर का वह मध्यमवर्गीय परिवेश जो
पीयूष ने अपने ज़हन में ज़िन्दा रखा है. वे कहने लगे कि बीस बरस के अर्से में जितना और
जो कुछ कर पाया उससे इत्मीनान है और ऐसा करना ही पड़ता है वरना आप अवसाद से घिर जाते
हैं. पीयूष ने बताया कि शौकिया थियेटर करने के बाद जब वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय,दिल्ली
पहुँचे तो उन्हें अहसास हुआ कि एक पाठ्यक्रम में बंधा हुआ अनुशासित रंगकर्म क्या बला
है. वे कहने लगे कि मुझे वहाँ जाने से मालूम हुआ कि वर्ल्ड थियेटर की ज़रूरतें और उसके
क़ायदे क्या हैं. अभिनय के दौरान पढ़ा हुआ टैक्स्ट आपके अवचेतन में जमा होता है और वह
बाक़ायदा समय पर आपसे अपना बेस्ट निकलवाता है. पीयूष ने कहा कि भारत के लोक संगीत में
असीम संभावनाएँ हैं जिन्हें तरीक़े से एक्सप्लोर करने की ज़रूरत है. वे दोहराने लगे कि
थियेटर कभी ख़ून में नहीं था और मेरे अभिनेता होने के बावजूद मेरे दोनों बेटों की अभिरुचि
अगल है. व्यावसायिक सिनेमा और कला सिनेमा की बात उठते ही पीयूष का कहना था कि ये सब
बेकार की बाते हैं. सिनेमा एक ऐसी कला है जिसे बेचने के बनाया गया है और जो भी बेचा
जाता है और दर्शक द्वारा पसंद किया जाता है वह व्यावसायिक सिनेमा ही है.
अलग
अलग कलाकार,जुदा-जुदा कथानक को लेकर विभिन्न अभिनेताओं से एक तस्वीर रचते हैं जिसे
अपनी सोच,संस्कार,तहज़ीब और कालखण्ड का दर्शक पसंद या नापसंद करता है. मुझे तो वेलकम
और सिंग इज़ किंग भी बेहतरीन लगती है और आनंद,पिया का घर ,मेघे ढाका तारा भी. संगीत
कैसे आपके जीवन में आया तो पीयूष ने बताया कि मेरी भीलवाड़ा में रहने वाली बुआ एक बार
मेरे लिये एक बाजा (हारमोनियम) ले आईं.ये सोचकर कि बच्चा बजाएगा और ख़ुश होगा. बस उस
बाजे ने मुझे संगीत से जोड़ दिया. वह जर्मनी मेक का १९३० का बाजा है. शायद उसकी रीड्स
ही मुझसे आरंभ है प्रचंड है....कहलवा लेता है.
मकबूल,गुलाल,तेरे
बिन लादेन,गैंग्स ऑफ़ वासेपुर से सुर्खियों
आए पीयूष मिश्रा हुए वार्तालाप में एक सहज और साफ़गोई वाला इन्सान रूबरू होता
है. संगीत,शब्द और अभियन का ये जब बात करता है तो लगने लगता है कि आप किसी संत या दरवेश
से बात कर रहे हैं जिसके बारे में पीयूष कहते हैं कि ज़िन्दगी के घटनाक्रम हैं ही ऐसे
कि आपको लगने लगे कि मैं फ़िलॉसॉफ़र बनके आपसे बात कर रहा हूँ लेकिन ये सब कटु सचाइयाँ
हैं जिनसे मैं दो-चार हुआ हूँ. बातों के धनी पीयूष मिश्रा .बात ख़त्म कहते हुए कहते
हैं ऐसा भी नहीं कि मेरे नामचीन होने के बाद मेरे पास काम का ढ़ेर है और वैसा मैं चाह्ता
भी नहीं हूँ.कुछ ख़ाली भी रखता हूँ अपने आपको क्योंकि अपने आप से भी मिलना चाहता हूँ.पढ़ना
चाहता हूँ-सुनना चाहता हूँ;फ़ैक्ट्री नहीं बनना चाहता. बहरहाल बात ख़त्म हुई लेकिन उसका
असर तारी रहा जैसा पीयूश मिश्रा की बलन के नेक तबियत और ख़ुशमिज़ाज शख़्स से मुलाक़ात के
बात रहना चाहिये. वे कला के एक अनूठे यायावर हैं जिसके कामयाबी बड़ी मामूली चीज़ है.
पीयूष ज़िन्दगी से बेसाख़्ता मुहब्बत करते हैं और इसीलिय उनसे किया गया संवाद आनंद भी
देता है और आपको कुछ सोचने के लिये झकझोर देता है. उनकी सफलता वसीम बरेलवी का एक शे'र
याद दिला देती है :
सोचने
से कोई राह मिलती नहीं
चल
दिये हैं,तो रस्ते निकलने लगे