Monday, December 19, 2011

तुमने दी आवाज़ लो मैं आ गया !

मेरी ज़िन्दगी में संगीत से पहले पेंटिंग आ गई. गायक न बनता तो मुसव्विर होता. लेकिन आज भी कैनवस पर ख़ासा समय बिता रहा हूँ. हाल ही मैंने सलमान ख़ान को उनकी फ़िल्म दबंग का पोर्ट्रेट बना कर दिया है.किसी ज़माने में दो से आठ रूपये में वडोदरा में चित्र बना कर कमा लेता था और उससे अपनी पॉकेट मनी निकाल लेता था.

बता रहे हैं नामचीन गायक शब्बीर कुमार और यक़ीन नहीं हो रहा कि एक सफल गायक कभी एक बेजोड़ पेंटर भी रहा होगा.आपको याद होगा कि सनी देओल-अमृता सिंह अभिनीत फ़िल्म बेताब के सभी गीतों में शब्बीर कुमार की आवाज़ जलवागर हुई थी. शब्बीर भाई ने बताया कि फ़िल्म कुली के गीत पहले रेकॉर्ड हो गये थे लेकिन अमिताभ बच्चन के शूटिंग के दौरान घायल हो जाने पर फ़िल्म देर से प्रदर्शित हुई.आर.डी.बर्मन को बेताब ने फ़िर से चोटी पर पहुँचा दिया था और मेरी आवाज़ भी घर-घर में पहचान पा गई थी.

सन १९८१ में मुम्बई आने के पहले शब्बीर कुमार वडोदरा में सैकडों शो करने वाले आर्केस्ट्रा को बहुत सफलतापूर्वक चला रहे थे.किस्मत ने साथ दिया और आते ही कई बड़े संगीतकारों ने मुझे मौक़े दिये. लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने कुली के सभी गाने गवाए. आर.डी.बर्मन,बप्पी लहरी और अन्नू मलिक के साथ भी कई फ़िल्में कीं.नई आवाज़ के रूप में ख़ैयाम साहब ने मुझसे चार रचनाएँ गवाईं.लताजी के साथ गाना किसी भी आर्टिस्ट के लिये ज़िन्दगी का सबसे बड़ा ईनाम हो सकता है जो मुझे भी मिला.ज़माना जानता है कि शब्बीरकुमार की आवाज़ पर मोहम्मद रफ़ी की स्पष्ट छाप है और इसे ये कलाकार विनम्रता से स्वीकार भी करता है. शब्बीर भाई ने बताया कि रफ़ी साहब तो मेरे लिये ख़ुदा हैं. आज भी स्टेज शोज में मसरूफ़ इस कलाकार की यह बात मन को बहुत छू गई कि किशोर दा,रफ़ी साहब,मुकेशजी,मन्ना दा,लताजी और आशाजी तो हम गाने वालों के लिये एक तरह के घराने हैं. इस बात को कुबूल करने में कोई संकोच और झिझक नहीं कि कहीं न कहीं इन सर्वकालिक महान आवाज़ों से ही हमने गाना सीखा  और ये ही आवाज़े और फ़नक़ार हमारे लिये एक विश्व-विद्यालय रहे हैं.आज सुरीले नग्में क्यों नहीं बन रहे हैं ? पूछने पर वे बोले फ़िल्मी गीत की ख़ासियत होते हैं शब्द और अब न वैसे शायर हैं न कवि जिन्हें फ़िल्म की सिचुएशन पर बात को कहने का माद्दा हो. आस रह जाती है गुलज़ार और जावेद अख़्तर से जो आज भी इस शोर के अंधेरे में एक उम्मीद की किरण हैं. रियलिटी की शुरूआत बहुत अच्छी है. यह आर्टिस्ट को शोहरत और पैसा दोनो दिलवाते हैं. शब्बीर कुमार ने बताया कि उनका बेटा दिलशाद भी गा रहा है उसने ए.आर.रहमान के लिये ब्लू में गाया है और फ़िल्म रावन में भी उसकी आवाज़ सुनाई दी है. आने वाले दिनों में एक रोमांटिक एलबम जारी हो रहा है और एक रूकी हुई फ़िल्म में अल्का याग्निक के साथ उनके कुछ गाने नये ज़माने के संगीत के स्टाइल में रेकॉर्ड हुए हैं. नई आवाज़ों के लिये कुछ टिप्स देंगे.शब्बीर कुमार ने बताया प्लैबैक सिंगिंग  अहसास की गायकी है. सबसे पहले शब्द की अहमियत को समझो,शायरी,कविता को समजो तो जानोगे कैसे अच्छा गया जाता है.इन्दौर पहले भी आया हूँ और चूँकि वरोदरा का रहने वाला हूँ तो ये शहर और यहाँ की तहज़ीब मुझे अपनापा देती है. 

Saturday, September 10, 2011

मन हर लेने वाली एक मीठी आवाज़




ये मेरी ख़ुशक़िस्मती है कि अग्रणी गायक मुकेशजी द्वारा गाये जाने वाले गीत को गाने का मौक़ा मुझे अनायास मिला और ये वाक़ई मेरे लिये किसी बड़े सम्मान से कम बात नहीं थी कि स्वयं मुकेशजी ने मेरी आवाज़ को सराहा. ये बात बता रहे हैं विख्यात पार्श्वगायक मनहर उधार जिन्हें संगीतकार कल्याणजी आनंदजी ने फ़िल्म विश्वास (जीतेन्द्र-अपर्णा सेन/१९६९) के लिये चंद पंक्तियाँ गाने लिये कहा और उसे रेकॉर्ड कर के जब मुकेशजी को सुनाया गया तो उन्होंने कहा कि इसी आवाज़ में गीत की फ़ायनल रेकॉर्डिंग कीजिये. मुकेशजी की सदाशयता से फ़िल्म संगीत को मनहर नाम की मीठी आवाज़ मिल गई.वह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था;बोल थे आपको हमसे बिछडे हुए एक ज़माना बीत गया. बाद में मनहर ने फ़िल्म अभिमान में लताजी के साथ गाये गये युगल गीत लुटे कोई मन का नगर बन मेरा साथी और फ़िल्म कुरबानी के लिये गाये गाये हम तुम्हें चाहते हैं ऐसे – गीत से देश भर में एक लोकप्रिय नाम बन गये. मालूम हो कि उधास परिवार के चश्मे-चिराग़ मनहर,पंकज और निर्मल संगीत की दुनिया में सुपरिचित नाम हैं.

जब मनहर भाई से मैंने रफ़ी साहब के बारे में पूछा तो उन्होंने ये बताते हुए चौंका दिया कि उषा खन्ना के संगीत बनी फ़िल्म दीदार और कल्याणजी-आनंदजी की फ़िल्म राजा-साब में उन्हें रफ़ी साहब के साथ गाने का मौक़ा मिला था. अभिमान में लताजी के साथ क्या अनुभव रहा तो मनहर भाई बहुत भावुक होते हुए बोले कि दीदी की सोच और विचार में जो गहराई है उसका अहसास उनके निकट जाए बिना नहीं हो सकता. अपने करियर की शुरूआत में जब  मनहर लताजी के साथ कुछ स्टेज शो कर रहे थे और तब लताजी ने आगे होकर एस.डी.बर्मन को फ़िल्म अभिमान के लिये इस नई आवाज़ का नाम सुझाया. उल्लेखनीय है कि मनहर उधास गुजराती संगीत का एक बड़ा नाम है और अब तक उनकी गुजराती ग़ज़लों के २७ एलबम निकल चुके हैं. इन एलबम्स को गुजराती संगीतरसिकों ने अपार स्नेह दिया है और बिक्री के लिहाज़ से भी अदभुत सफलता हुई है.

गुजरात से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर सन १९६९ में मुबई आए मनहर के गीत तू इस तरह से मेरी ज़िन्दगी में शामिल है ( आप तो ऐसे न थे) तू मेरा जानू है (हीरो) हर किसी को नहीं मिलता (जानबाज़) तेरा नाम लिया( राम-लखन) सुर्ख़ियों में बने रहे हैं. विनम्रता और स्वभाव की मधुरता मनहर को तथाकथित सेलिब्रिटि कल्चर से दूर करती है और वे हमेशा एक ज़हीन इंसान की तरह पेश आते हैं और मिलने वाले को खुलूस और आत्मीयता से भर देते हैं. उनसे मिलकर यह अहसास भी तारी हो जाता है कि मीठी आवाज़ के लिये वैसी तबियत भी बहुत काम आती है.

(मनहर उधास के साथ ये चित्र ख़ाकसार का है.नब्बे के दशक में मनहर भाई एक प्रस्तुति के लिये इन्दौर आए थे)


Friday, September 9, 2011

हिन्दी नाटक जैसा है;वैसा ही होना था



ज़माना अपने ढंग से चलेगा. नाहक ही उसमें वह मत तलाशिये जो बीत चुका है या जो बदलता जा रहा है. समझदारी इसी में है स्थितियों को जस का तस कुबूल करें और उसे वक़्त का तक़ाज़ा मान कर आगे बढ़ते जाएं.अच्छी ज़ुबान,कविता,अदाकारी और परिश्रम के मुरीद अब भी हैं लेकिन उनसे काम करवाने में दिलचस्पी किसी को नहीं नहीं है.अब क्रियेटिविटि का मुस्तकबिल तो  प्रति-सैकंड के इश्तेहार और टीआरपी कर रहे हैं.

ये विचार हैं सीधी,सच्ची और खरी बात करने वाले दिग्दर्शक और रंगमंच धारावाहिकों के सुपरिचित अभिनेता राजेन्द्र गुप्ता के जो  निजी प्रवास पर इन्दौर आए हुए हैं. क्रिश्चियन कॉलेज में ब्रांसन हॉल के सामने प्राचार्य अमित डेविड के निवास पर राजेन्द्रजी से बतियाना हिन्दी रंगमंच और टीवी सीरियल्स की उन हक़ीक़तों से रूबरू होना है.उनका मानना है कि हिन्दी नाटक जिस हाल में है वह वैसा ही होना था और इसके लिये किसी को कोसने की ज़रूरत नहीं है.जो लोग रंगमंच से फ़िल्म/टीवी की ओर रूख कर रहे हैं उन्हें वैसा करने का हक़ है.

 राजेन्द्रजी ने मुखरता से कहा कि हम भागते समय में जी रहे  हैं उसमें और ख़ासकर धारावाहिकों में हमसे काम लेने वाला निर्देशक कम व्यापारी ज़्यादा है.वह एक प्रोडक्ट की तरह अपना माल बेचना चाहता है.आपकी मर्ज़ी हो तो उसके काम का हिस्सा बनिये वरना उसके पास विकल्पों की कमी नहीं.यही वजह है कि आजकल धारावाहिकों में कलाकार के नाम भी नहीं दिये जा रहे हैं. निर्माताओं का मानना है कि यदि आपके काम में दम तो आपको अपने आप काम मिलता जाएगा.राजेन्द्रजी ने बताया मैं अपनी तासीर और तबियत को ध्यान में रखते हुए काम करता हूँ और अभिनय का आनंद लेता हूँ. इन्दौर,उज्जैन और भोपाल में नाट्य शिविर और प्रस्तुतियाँ कर चुके इस कलाकार ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से सन ७२ में ग्रेज्युएशन के बात सन ८५ तक दिल्ली के रंगमच पर धूम मचाई.यही वह  वक़्त था जब सुधा और ओम शिवपुरी आधे-अधूरे की क़ामयाबी को लेकर मुम्बई रूख कर चुके थे और प्रयोगधर्मी सिनेमा में हाथ आज़माने के बहाने ओम पुरी और नसीरूद्दीन शाह जैसे कलाकारों को भी मुम्बई में ही अपना रोशन मुस्तक़बिल नज़र आ रहा था; राजेन्द्र फ़िर भी दिल्ली में बने रहे और बांझरात और चोर के घर मोर जैसे सशक्त नाटकों में अपनी पहचान मुकम्मिल कर चुके थे. पानीपत से निकलकर दिल्ली में अपने करियर का आसमान तलाशने वाले राजेन्द्रजी ने रमेश बख्शी की  देवयानी का कहना है और सुरेन्द्र वर्मा की  सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण जैसी बोल्ड स्किप्ट्स बतौर निर्देशक हाथ में ली .सुरेका सीकरी (बालिका वधु की मा सा.) जैसी सशक्त अभिनेत्री का साथ और राजेन्द्रजी की मेहनत रंग लाई वे हिन्दी रंगमंच के क़ामयाब निर्देशकों में शुमार किये जाने लगे.














फ़िल्में एक्टर के नाम से बिकतीं हैं और नाटक डायरेक्टर के नाम से कहना है इंतज़ार,चंद्रकांता और बालिका वधु जैसे धारावाहिकों के ज़रिये मशहूर हो चुके राजेन्द्र गुप्ता का जिन्हें शास्त्रीय संगीत गायिका किशोरी अमोणकर को सुनना बेहद पसंद है और वे कहते हैं कि यही वह कलाकार है जो शून्य में से स्वर सिरजतीं हैं. राजेन्द्रजी को बेगम अख़्तर सुनना अच्छा लगता है और वे ख़ुद अच्छे ख़ासे कवि हैं और कविताओं को सुनने-सुनाने के मजमें में शिरक़त करने के लिये रतजगा भी कर सकते हैं.राजेन्द्र गुप्ता एक ऐसा इंसान है जो व्यापारिक पृष्ठभूमि का होकर भी बेफ़िक्री से रहता है. मुम्बईवासी होने के बावजूद वहाँ की महानगरीय भागमभाग को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता और वर्तमान को सबसे ज़्यादा आनंददायक मानकर ज़िन्दगी की प्लानिंग में विश्वास नहीं करता.कलाकार को होना भी तो ऐसा ही चाहिये न....?


Wednesday, May 4, 2011

अदाकारों की भीड़ में अलग नज़र आनेवाला चेहरा !

कला फ़िल्मों में ऐसा बहुत कुछ रचा गया है जो साधारण है और कमर्शियल सिनेमा में ऐसा बहुत कुछ उत्कृष्ट है जो असाधारण है.सच कहूँ हर फ़िल्म को तो कमर्शियल होना ही पड़ता है क्योंकि उसी फ़िल्म की उम्र सफलता तय होती है. मेरा रोल फ़िल्म में छोटा है या बड़ा ये महत्वपूर्ण नहीं;मेरे लिये अहमियत है किरदार की;क्योंकि वही है जो मुझे दर्शकों के दिल में जगह देता है.मुझसे रूबरू हैं जानेमाने अभिनेता पवन मल्होत्रा . उन्होंने  बताया कि अभिनय का कोई ख़ास माहौल घर में नहीं था बस दिल्ली में एक दोस्त के इसरार पर  शुरू हो रहे नाटक तुग़लक में काम करने चला गया और नाटक से मुहब्बत हो गई. १९८५ में फ़िल्मों में काम करने के मकसद से मुम्बई आना हुआ और सईद अख़्तर मिर्ज़ा के बहु-चर्चित धारावाहिक नुक्कड़ में काम मिला और इसी धारावाहिक ने पवन के लिये फ़िल्म्स और धारावाहिकों के रास्ते खोल दिये. १९८९ आते आते पवन को बाघ बहादुर और सलीम लंगड़े पर मत रो जैसे क़ामयाब और चर्चित फ़िल्में मिलीं जिन्हें न केवल सराहना मिली बल्कि राष्ट्रीय सम्मानों से भी इन तस्वीरों को नवाज़ा गया. २००३ में तेलगु फ़िल्म आइथे और २००४ में टाइगर मेनन के किरदार को जीवन्त करती फ़िल्म ब्लैक फ़्राइड़े ने पवन को अभिनय जगत में एक स्थाई पहचान दी और एक ऐसे अभिनेता के रूप में स्थापित कर दिया जो अदाकारों की भीड़ में अलग नज़र आने वाला चेहरा कहलाया. पवन मल्होत्रा को छोटे पर्दे पर देखिये या बड़े पर्दे पर वे हमेशा अपने किरदार में डूबे हुए नज़र आते हैं अपने ज़बरदस्त होमवर्क से उन्हें मिली स्पेस का सार्थक उपयोग करते हैं. किसी भी कैरेक्टर को मेनेरिज़्म देने में भी वे बेजोड़ हैं . रोड़ टू संगम में किया गया मौलवी का रोल देखने के बाद यक़ीन नहीं आता कि वे पवन मल्होत्रा हैं. उन्होंने मौलवी के रूप में अपने संवादों को कुछ ऐसा चबा और घुमा कर बोला है जो उस किरदार के इरादतन ठसके को स्टैबलिश करता है. ऋषिकेश मुखर्जी और लेख टण्डन जैसे रचनाशील निर्देशकों के साथ काम करने के अनुभव को पवन जीवन की एक बड़ी कमाई मानते हैं और कहते हैं कि एक अभिनेता की गढ़ावन में अच्छे लोगों का साथ मिलना बहुत अहम है. इस मामले में वे अपने आपको ख़ुशक़िस्मत मानते हैं और ख़ास तौर पर सईद अख़्तर मिर्ज़ा,बुध्ददेव दासगुप्ता,श्याम बेनेगल,दीपा मेहता,गौतम घोष जैसे बेजोड़  फ़िल्मकारों का नाम रेखांकित करने से नहीं चूकते.पवन मल्होत्रा कहते हैं कि अपनी शर्तों पर काम करता हूँ ऐसा कहना दंभ को अभिव्यक्त करता है क्योंकि हक़ीक़त यह है कि इंडस्ट्री में हर शख़्स काम के लिये आया है और हर एक को शाम होते ही एक बिल पे करना है. मुम्बई में यदि रहना है इस हक़ीक़त से बाख़बर रहना बहुत ज़रूरी है. हाँ काम लेने के मामले में ज़रा नख़रा ज़रूर करता हूँ क्योंकि मानता हूँ कि मुझे अपने आपको व्यक्त करने का बेहतरीन मौक़ा ये फ़िल्म या धारावाहिक दे रहा है. क्योंकि अदाकारी और मज़दूरी में ज़रा फ़र्क़ है. पवन मल्होत्रा दिलीप कुमार, शम्मी कपूर और अमिताभ बच्चन की अदाकारी में बहुत सचाई नज़र आती है और वे मानते हैं कि अमजद ख़ान, अमरीश पुरी और परेश रावल हमारे बहुत अंडर-रेटेड आर्टिस्ट हैं.अमजद ख़ान की बहुमुखी प्रतिभा को विशेष रूप से याद करते हुए पवन मल्होत्रा कहते हैं कि शोले के गब्बर सिंह का रोल करने के बाद शतरंज के खिलाड़ी में वाजिद अली शाह और लव स्टोरी,रूदाली और कुरबानी के जुदा जुदा कैनवस पर अमजद ख़ान का होना किसी कलाकार की वर्सेटिलिटी की शिनाख़्त करता है. माय नेम इज़ एंथोनी गोंज़ाल्विस,डॉन-२,विकृत जैसी फ़िल्मों में अपनी बेजोड़ अदाकारी का लोहा मनवा चुके पवन मल्होत्रा अपनी नई फ़िल्म भिंडी बाज़ार को लेकर बहुत आशान्वित हैं .. उनकी पत्नी अपर्णा का रिश्ता उज्जैन से रहा है और  वे फ़िल्म शौर्य लिख चुकी हैं.दक्षिण भारत में अपने दमदार अभिनय से पवन मल्होत्रा एक मुकम्मिल पहचान रखते हैं. अपने बारे बहुत कम बोलने वाले पवन मल्होत्रा फ़िल्म इंडस्ट्री का ऐसा चेहरा है जिसका काम बोलता है.

Sunday, April 24, 2011

पद्मश्री से मैं नहीं हमारी मीठी मालवी नवाज़ी गई है.


 
















म्हें तो गाम-गामड़ा को मनख हूँ दादा.यो दाता कबीर का नाम को जादू हे कि इण सेवकका माथा पे पदमसिरी को तिलक लगई दियो. यो म्हारो नीं, माँ मालवी को मान हे.मालवी को आसरो नी वेतो तो टिपानिया के असो जस नी मिलतो.(मैं तो गाँव का आदमी हूँ भाई.ये  तो दाता कबीर साहब के नाम का जादू है जिसने इस सेवक के माथे पर पद्मश्री का तिलक लगा दिया है.ये (पद्मश्री अलंकरण)मेरा नहीं मेरी बोली मालवी का मान है. मालवी का  आसरा न होता तो इस टिपानिया को ऐसा यश नहीं मिलता.)


ये बात आज अपनी सात दिनी मालवा कबीर यात्रा लेकर निकले मालवी के लाड़ले कबीरपंथी गायक ने ख़ाकसार से  ख़ास बातचीत में कहे . उल्लेखनीय है कि प्रहलादसिंहजी विगत १५ वर्षों से अपने गाँव लूनियाखेड़ी(मक्सी) में प्रतिवर्ष एक कबीर समागम करते हैं.पिछले वर्ष से यह सिलसिला मालवा कबीर यात्रा में तब्दील हो गया. १७ अप्रैल से लुनियाखेड़ी से शुरू हुई मालवा कबीर यात्रा उज्जैन,देवास,शाजापुर,पचोर (राजगढ़) नीमच,पेटलावद होती हुई २४ अप्रैल को इन्दौर पहुँच रही है.इस पूरे जमावड़े में २० से अधिक कलाकारों ने शिरक़त की.

टिपानियाजी ने बताया कि हर जगह कबीर यात्रा को अभूतपूर्व प्रतिसाद मिला. ग़ौरतलब है कि इवेंट मैनेजमेंट के दौर में टिपानियाजी और उनके भोले-सादे कलाकार बस भरकर गाँव दर गाँव अनवरत यात्रा करते रहे.लिंडा हैस जैसी वरिष्ठ अमेरिकन लेखिका भी इस पूरी यात्रा में टिपानियाजी अन्य कलाकारों की कारीगरी का आनंद लेतीं रहीं. कबीर यात्रा के कलाकार खेतों में चल रहे पम्प से नहाते रहें और तरोताज़ा होकर पूरी-पूरी रात कबीरी छाप वाले गीतों से अलख जगाते रहे.लगभग हर जगह टिपानियाजी के प्रति लोगों का असीम लाड़ उमड़ा और सारे कलाकारों को प्रेमपूर्ण मिजवानी मिलती रही.अमेरिका तक अपनी गायकी का जादू फ़ैला चुके इस ज़मीनी कलाकार  का कहना है कि मुझे तो आज भी गाना नहीं आता. चौबीस पच्चीस बरस की उम्र थी और सत्तर का दशक था तब लोकगीतों में उपयोग में लिये जाने वाले तंबूरे के लिये मन में आकर्षण पैदा हुआ,तब गाने का ख़याल तो मन में आया ही नहीं था. देवास ज़िले के लोकगीत गायक चेनाजी को पहली बार गाते सुना और लगा कि इस ओर प्रयास करना चाहिये. पहली बार खेती-किसानी का गीत गाया (खेती करे तो थारे समझ बताऊँ,बलद्या ने दु:ख मती दीजे) और उसी में छुपे मर्म में मिली कबीरी रंग से एक रूहानी  उजास मेरे मन में प्रकट हुआ.

सन अस्सी की शुरूआत में आकाशवाणी इन्दौर में टिपानियाजी का स्वर परीक्षण हुआ तब तंबूरा,खड़ताल और मंजीरा लेकर ही लोकगीत गाते थे टिपानियाजी. बाद में हारमोनियम,वॉयलिन,तबला,ढोलक जैसे वाद्यों के शुमार से लोकगीतो का माधुर्य और बढ़ने लगा. टिपानियाजी आज भी आकाशवाणी इन्दौर का गुणगान करते नहीं अघाते. वे कहते हैं कबीरी गीतों में मालवी की ख़ुशबू और मालवा हाउस का आसरा न होता तो टिपानिया लूनियाखेड़ी में माडसाब बन कर रह जाता.प्रहलादसिंहजी को अमेरिका की शोधार्थी लिंडा हैस,संस्कृतिकर्मी और कवि अशोक वाजपेयी, फ़िल्म निर्मात्री शबनम विरमनी जैसे कबीरप्रेमियों की रहनुमाई ने बहुत हौसला दिया. विनम्र,औलिया तबियत और ज़मीन से जुड़े इस मिट्टी के लाल ने मालवा को पूरी दुनिया में अदभुत मान दिलवाया है.निरगुणी पदों को लेकर की जा रही उनकी कोशिशें पं.कुमार गंधर्व जैसे कलावंतो के प्रयासों का विस्तार है और प्रसन्नता इस बात की है कि अब प्रहलादसिंह टिपानिया के कलाकर्म को सूफ़ी गायक कैलाश खेर,रंगकर्मी शेखर सेन, गुजराती लोकगीत गायक हेमंत चौहान,शास्त्रीय संगीत कलाकार  शुभा मुदगल और पं.छ्न्नूलाल मिश्र तथा दक्षिण भारतीय संगीत के कलाकार दम्पत्ति अनुराधा और श्रीराम परशुराम जैसे समकालीन लोकप्रिय कलाकारों की सराहना भी मिली है और वे सब टिपानियाजी की गायन शैली और पद चयन को लेकर लगभग अचंभित से हैं.

राष्ट्रपति भवन में पद्मश्री अलंकरण के बाद कैसा लग रहा था यह पूछने पर टिपानियाजी की आँखे भर आतीं हैं. वे कहते हैं कि मैंने कहाँ सोचा था कि एक अनजाने से गाँव से शुरू हुई मेरी यह मामूली सी यात्रा मुझे इस जगह तक ले आएगी. किंतु ये भरोसा अवश्य था कि कबीर इतने विलक्षण हैं उनके काम तो आगे बढ़ेगा ही,मेरा नाम बढ़े ना बढ़े.पद्मश्री प्रहलादसिंह टिपानिया से बतियाते वक़्त कबीरी भाव की सादगी का अहसास बना रहता है.वे तो अपने टीप भरे स्वर से निरगुनिया की टेर लगाते जा रहे हैं.शास्त्र और कायदों के झमेले में पड़े बग़ैर टिपानिया की रंगरंगीली रामगाड़ी अनहद नाद की तलाश में चलती जा रही है....अनवरत


(राष्ट्रपति भवन में पिछले दिनों आयोजित हुए अलंकरण समारोह में मालव-माटी के  इस लाल प्रहलादसिंह टिपानिया  को पद्मश्री अलंकरण से नवाज़ रहीं हैं राष्ट्रपति प्रतिभाताई पाटिल )

Sunday, April 17, 2011

ज्ञान की गंगा में नहाय लिया;मन में मैल ज़रा न रहा !


मैं तो विलोम में जीता हूँ.शुरूआत ही अवरोह से हुई थी तो ज़िन्दगी में अब आरोह ही आरोह है लेकिन मन तलाशता है कबीर और उन जैसे दरवेशों और सूफ़ियों के आस्तानों को.बस इसी तलाश में मालवा के इस प्यारे गाँव लूनियाखेड़ी चला आया हूँ. मुम्बइया ग्लैमर और चकाचौंध से परे राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित मक्सी के निकट बसे कबीरनगर(लूनियाखेड़ी) में बात हो रही है आवाज़ की दुनिया के अलबेले गायक कैलाश खेर से. वे पद्मश्री प्रहलादसिंह टिपानिया के बुलावे पर शनिवार को यहाँ पहुँचे.उल्लेखनीय है कि १७ अप्रैल २०११ से सदगुरू स्मारक सेवा शोध संस्थान,लूनियाखेड़ी की मिजवानी में मालवा कबीर यात्रा का शुभारंभ होने जा रहा है जो २४ अप्रैल को इन्दौर में आयोजित समागम में समाप्त होगी.
कैलाश भाई के रोम-रोम में सूफ़ियाना तबियत का अहसासा होता है. वे चमक-दमक की दुनिया में रहते हुए भी मिट्टी से अपना सरोकार नहीं तजते.वे कहते हैं जो ज्ञान की गंगा में नहाय लिया;उस मन में मैल ज़रा न रहा.

कैलाश खेर टिपानियाजी के मुरीद हैं और कहते हैं कि कबीरबानी का ये फ़कीर आज यह की जिन ऊँचाइयों पर पहुँचा है उसका राज़ इनकी(प्रहलादसिंहजी की) सादगी और साधना है. मालवी पदों से कबीरी रंग छलकाने वाले और पद्मश्री से इसी बरस सम्मानित हुए टिपानियाजी के इस सादे किंतु प्रेम भरे आतिथ्य पर कैलाश खेर कुरबान से हुए जाते हैं. यही वजह है कि वे अपनी पत्नी शीतल और बेटे कबीर को भी लुनियाखेड़ी साथ लाए हैं.वे कहते हैं फ़िल्मों और स्टेज शोज़ में गाना मेरे लिये एक देवालय की तामीर है लेकिन लूनियाखेड़ी में आकर कबीरी भाव में हाज़री लगाना तो उस देवालय की मिट्टी बन जाना है. मैं यहाँ गाने नहीं,कबीरी रस के सच्चे और खरे सेवकों के चरणों की धूलि अपने माथे पर चढ़ाने आया हूँ.अगर गाने का मन भी हुआ तो श्रोताओं को नहीं इस प्यारे गाँव के गाय-बछड़ों,लहलहाते खेतों-खलिहानों को सुनाऊँगा.मैं तो यहाँ  रूहानी तरंगों का रस लूटने आया हूँ क्योंकि यहाँ शहरी प्रपंच नहीं है.

कैलाश खेर जब बोल रहे थे तो लग रहा था कबीरी चादर ओढे़ एक सूफ़ी से बात हो रही है. न मंचीय लटका झटका , न फ़िल्मी दुनिया का नख़रा. दिल से दिल की बात करने वाले कैलाश बोले ज़िन्दगी में विपरीत को गले लगाना सीख लिया तो मेरे दाता ने सुप्रीत अपने आप मुहैया करवा दी है. कैलाश खेर बोले न मैं किसी देवी-देवता को मानता हूँ न कर्मकाण्ड में यक़ीन करता हूँ. मैं तो आंतरिक प्रकाश की तलाश का यात्री हूँ और संगीत मेरे लिये उसका रास्ता सहज बनाता है.कैलाश खेर यानी संगीत का प्यासा एक जोगी जो मन के इकतारे पर अलख जगाता मालवा में आ गया है.