Friday, September 9, 2011

हिन्दी नाटक जैसा है;वैसा ही होना था



ज़माना अपने ढंग से चलेगा. नाहक ही उसमें वह मत तलाशिये जो बीत चुका है या जो बदलता जा रहा है. समझदारी इसी में है स्थितियों को जस का तस कुबूल करें और उसे वक़्त का तक़ाज़ा मान कर आगे बढ़ते जाएं.अच्छी ज़ुबान,कविता,अदाकारी और परिश्रम के मुरीद अब भी हैं लेकिन उनसे काम करवाने में दिलचस्पी किसी को नहीं नहीं है.अब क्रियेटिविटि का मुस्तकबिल तो  प्रति-सैकंड के इश्तेहार और टीआरपी कर रहे हैं.

ये विचार हैं सीधी,सच्ची और खरी बात करने वाले दिग्दर्शक और रंगमंच धारावाहिकों के सुपरिचित अभिनेता राजेन्द्र गुप्ता के जो  निजी प्रवास पर इन्दौर आए हुए हैं. क्रिश्चियन कॉलेज में ब्रांसन हॉल के सामने प्राचार्य अमित डेविड के निवास पर राजेन्द्रजी से बतियाना हिन्दी रंगमंच और टीवी सीरियल्स की उन हक़ीक़तों से रूबरू होना है.उनका मानना है कि हिन्दी नाटक जिस हाल में है वह वैसा ही होना था और इसके लिये किसी को कोसने की ज़रूरत नहीं है.जो लोग रंगमंच से फ़िल्म/टीवी की ओर रूख कर रहे हैं उन्हें वैसा करने का हक़ है.

 राजेन्द्रजी ने मुखरता से कहा कि हम भागते समय में जी रहे  हैं उसमें और ख़ासकर धारावाहिकों में हमसे काम लेने वाला निर्देशक कम व्यापारी ज़्यादा है.वह एक प्रोडक्ट की तरह अपना माल बेचना चाहता है.आपकी मर्ज़ी हो तो उसके काम का हिस्सा बनिये वरना उसके पास विकल्पों की कमी नहीं.यही वजह है कि आजकल धारावाहिकों में कलाकार के नाम भी नहीं दिये जा रहे हैं. निर्माताओं का मानना है कि यदि आपके काम में दम तो आपको अपने आप काम मिलता जाएगा.राजेन्द्रजी ने बताया मैं अपनी तासीर और तबियत को ध्यान में रखते हुए काम करता हूँ और अभिनय का आनंद लेता हूँ. इन्दौर,उज्जैन और भोपाल में नाट्य शिविर और प्रस्तुतियाँ कर चुके इस कलाकार ने राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से सन ७२ में ग्रेज्युएशन के बात सन ८५ तक दिल्ली के रंगमच पर धूम मचाई.यही वह  वक़्त था जब सुधा और ओम शिवपुरी आधे-अधूरे की क़ामयाबी को लेकर मुम्बई रूख कर चुके थे और प्रयोगधर्मी सिनेमा में हाथ आज़माने के बहाने ओम पुरी और नसीरूद्दीन शाह जैसे कलाकारों को भी मुम्बई में ही अपना रोशन मुस्तक़बिल नज़र आ रहा था; राजेन्द्र फ़िर भी दिल्ली में बने रहे और बांझरात और चोर के घर मोर जैसे सशक्त नाटकों में अपनी पहचान मुकम्मिल कर चुके थे. पानीपत से निकलकर दिल्ली में अपने करियर का आसमान तलाशने वाले राजेन्द्रजी ने रमेश बख्शी की  देवयानी का कहना है और सुरेन्द्र वर्मा की  सूर्य की अंतिम किरण से पहली किरण जैसी बोल्ड स्किप्ट्स बतौर निर्देशक हाथ में ली .सुरेका सीकरी (बालिका वधु की मा सा.) जैसी सशक्त अभिनेत्री का साथ और राजेन्द्रजी की मेहनत रंग लाई वे हिन्दी रंगमंच के क़ामयाब निर्देशकों में शुमार किये जाने लगे.














फ़िल्में एक्टर के नाम से बिकतीं हैं और नाटक डायरेक्टर के नाम से कहना है इंतज़ार,चंद्रकांता और बालिका वधु जैसे धारावाहिकों के ज़रिये मशहूर हो चुके राजेन्द्र गुप्ता का जिन्हें शास्त्रीय संगीत गायिका किशोरी अमोणकर को सुनना बेहद पसंद है और वे कहते हैं कि यही वह कलाकार है जो शून्य में से स्वर सिरजतीं हैं. राजेन्द्रजी को बेगम अख़्तर सुनना अच्छा लगता है और वे ख़ुद अच्छे ख़ासे कवि हैं और कविताओं को सुनने-सुनाने के मजमें में शिरक़त करने के लिये रतजगा भी कर सकते हैं.राजेन्द्र गुप्ता एक ऐसा इंसान है जो व्यापारिक पृष्ठभूमि का होकर भी बेफ़िक्री से रहता है. मुम्बईवासी होने के बावजूद वहाँ की महानगरीय भागमभाग को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता और वर्तमान को सबसे ज़्यादा आनंददायक मानकर ज़िन्दगी की प्लानिंग में विश्वास नहीं करता.कलाकार को होना भी तो ऐसा ही चाहिये न....?


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