Thursday, December 24, 2009

रफ़ी साहब के ड्रायवर अल्ताफ़ भाई की यादें


मोहम्मद रफ़ी साहब 1980 में दुनिया ऐ फ़ानी से रूख़सत हुए. उसके बाद कई लोगों ने उनकी यादों को ताज़ा किया. पिछले दिनो मेरे शहर के शाम के अख़बार प्रभात-किरण के युवा पत्रकार हिदायतउल्लाहख़ान
ने हमारे महबूब गुलूकार रफ़ी साहब के ड्रायवर अल्ताफ़ हुसैन ख़ान से मुलाक़ात की. मुझे लगा ये बड़ी प्यारी सी और भावपूर्ण गुफ़्तगू रफ़ी साहब के जन्मदिन पर ब्लॉग-बिरादरों तक पहुँचना चाहिये. मुलाहिज़ा फ़रमाए और महसूस करें छोटी छोटी बातों का ख़याल रखकर ही कोई बड़ा और महान बनता है,:


अल्ताफ़ हुसैन ख़ान का तआरुफ़ यह है कि ये जनाब, महान गायक मोहम्मद रफ़ी के ड्रायवर रहे हैं। चार साल रफ़ी साहब की एम्पाला दौड़ाई है। अपनी ज़िंदगी के सबसे क़ीमती व़क़्त का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं कि मोहम्मद रफ़ी साहब की क्या बात करें, वो तो इंसान की शक्ल में फ़रिश्ता थे। जिस आदमी की पूरी दुनिया दीवानी थी, वो इतना सादा था कि सादगी भी उससे शरमाती थी। साहब की ज़िंदगी का एक ही उसूल था, किसी को अपना बना लो या किसी के हो जाओ। बीच का रिश्ता रखने में वो बेहद कंजूस थे। जिस मोहब्बत से किसी निर्माता या संगीतकार से मिलते थे, उतनी ही मोहब्बत उनमें उस व़क़्त भी होती जब वे अपने चाहने वालों के बीच होते थे। आम और ख़ास में फ़र्क करना उनकी फ़ितरत में नहीं था, तभी तो उनकी आवाज़ उनके अख़लाक़ से हमेशा दबी रही। मुस्कुराते रहने वाला वो ख़ूबसूरत चेहरा आज भी आँखों में घूमता है।

यादगार रही पहली मुलाकात :
मैं मीनाकुमारी की मर्सिडीज़ चलाया करता था, जो लैफ़्टहैंड ड्राइव थी। कमाल (अमरोही) साहब के पास से मीनाकुमारी चली गईं थीं और मैं ड्रायवर की जगह चौकीदार हो गया था। रफ़ी साहब को लैफ़्टहैंड ड्रायवर की तलाश थी। मुझे उनके साले (जो उनके सेक्रेटरी थे) ज़हीर ने उनसे मिलाया। उस व़क़्त रफ़ी साहब के बच्चे पुणे में पढ़ते थे। उन्होंने मुझे पुणे गाड़ी चलाकर ले जाने को कहा। मैं तैयार था। मेरी ड्रायविंग से रफ़ी साहब बेहद ख़ुश हुए और अपने यहॉं २०० रु. महीने पर रख लिया।

खाना साथ खिलाया :
रास्ते में मैंने साहब को पुणे के एक होटल के बारे में बताया, जहॉं मीनाकुमारी और कमाल साहब अक्सर खाना खाया करते थे। तो रफ़ी साहब ने भी वहीं खाना खाने की ख़्वाइश ज़ाहिर की। मैं गाड़ी पार्किंग में लगाकर उसी में बैठ गया, जैसा मैं पहले किया करता था। तभी ज़हीर भाई मुझे बुलाने आए और बोले- साहब बुला रहे हैं। मुझे देखकर उन्होंने कहा मियॉं तुम्हें भूख नहीं लगती क्या? पास वाली कुर्सी पर बैठाया और कहा कि आज सारे खाने का ऑर्डर तुम ही दोगे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या हो रहा है। उनकी महानता से यह मेरी पहली मुलाक़ात थी। उसके बाद तो हर दिन उने नए क़िरदार से मुलाक़ात होने लगी, जिसमें वो कभी दाता नज़र आते, तो कभी हमदर्द, कभी दोस्त तो कभी भाई।

ड्रायवर को दिलाई टैक्सी :
मुझसे पहले उनके वहॉं सुल्तान ड्रायवर था, जो काफ़ी पुराना था। लैफ़्टहैंड ड्राइव में वो कमज़ोर था, जिसकी वजह से मुझे रखा गया था और उसे अलग कर दिया गया था, लेकिन ऐसे ही नहीं। साहब ने बाक़ायदा उसे ७० हज़ार रुपए की टैक्सी दिलाई थी और कहा था कि रफ़ी के दरवाज़े तेरे लिए २४ घंटे खुले हैं।

झटके से बोलते थे :
रफ़ी साहब पंजाबी थे, इसलिए उनके बोलने का अंदाज़ भी पंजाबी ही था। वो झटके से बोलते थे। ठहर-ठहर कर आराम से बोलना उनकी आदत थी। हम ये सोचा करते थे कि ये बंदा गाते व़क़्त तो तूफ़ान खड़ा कर देता है, लेकिन बोलने में उतना ही सुस्त है। साहब कम लेकिन दमदार बोलते थे। इसी तरह उनका मज़ाक़ भी प्यारा होता था। उन्हें उर्दू अच्छी आती थी और वो गाने की स्क्रिप्ट अपनी डायरी में अपने हाथ से उर्दू में ही लिखा करते थे।

घर में जमती पंगत :
इतवार को छुट्टी हुआ करती थी, इस दिन क़रीबी मिलने वालों के साथ घर के नौकरों को लेकर साहब घर में ही शुरू हो जाते थे। पेटी उनके सामने होती थी। फिर एक-एक करके सबकी फ़रमाइश पूरी की जाती। घर में भी वो उसी अंदाज़ में गाते जैसा स्टूडियो में गाते थे। मैं जिस गाने की फ़रमाइश करता वो उनकी भी पसंद का निकलता था। ख़ासकर बैजू-बावरा के गाने उन्हें बहुत पसंद थे। एक बार तो माली ने लता मंगेशकर के गाने की फ़रमाइश कर डाली, तो साहब ने उसे मायूस नहीं किया और लता के अंदाज़ में गाना सुनाया।

अच्छे मिस्त्री थे :
विदेश से दूसरे सामान के साथ वो हमेशा कुछ औज़ार ज़रूर लाया करते थे। घर में सभी तरह के आधुनिक औज़ार थे। छुट्टी के दिन लुंगी बांधकर वो एकदम मिस्त्री बन जाया करते थे। कभी दरवाज़े-खिड़की सुधारते तो कभी बिजली का काम करते। सेनेटरी का काम भी कर लेते थे। मोटर मैकेनिक भी हो गए थे। सारे काम ख़ुद करने में उन्हें मज़ा आता था। ऐसा लगता था कि जैसे वो काम के लिए व़क़्त की तलाश में ही रहते हों। काम करते व़क़्त वो आम आदमी से भी ज़्यादा आम हो जाते थे। फिर वो गायक न जाने कहॉं चला जाता था, जिसकी शोहरत का डंका था।

चौकड़ी थी :दिलीपकुमार, नौशाद, जॉनी वाकर और रफ़ी साहब की चौकड़ी थी। हर प्रोग्राम में ये साथ दिखाई देते थे। फिर टेनिस क्लब में तो रोज़ मिलते ही थे। साहब को शिकार का शौक नहीं था, जबकि ये तीनों पक्के शिकारी थे।

वो आ रहे हैं आलम-पनाह :
साहब के चाहने वाले और क़रीबी दोस्त उन्हें आलम पनाह कहा करते थे, क्योंकि हमारे साहब को अंदाज़ ही कुछ ऐसा था। बड़े क़रीने के आदमी थे। कहीं भी कार रुकवा कर चाहने वालों से मिल लेते थे। हर ख़त का जवाब ख़ुद लिखते थे। जब हमने आलम-पनाह कहरने की कोशिश की तो मना कर दिया। कहा - मैं रफ़ी ही ठीक हूँ और वह भी मोहम्मद रफ़ी।

मोहर्रम में काम बंद -:साहब मोहर्रम की दस तारीख़ तक गाना नहीं गाते थे। रमज़ान में भी गाना तो बंद नहीं करते थे, लेकिन रिकॉर्डिंग दोपहर से पहले कर लिया करते थे। साहब पक्के मज़हबी थे। नमाज़ के साथ दूसरे अरकान के लिए वो व़क़्त निकाल लेते थे।



नेक ज़िंदगी को सलाम -:मेरी शादी के बारे में जब उन्हें पता चला तो पंद्रह सौ रुपए दिए (१९६५ में ये बड़ी रक़म हुआ करती थी) और स्टेशन तक छोड़ने आए। हर रेकॉर्डिंग में दस रुपए दिया करते थे। कभी कोई उनके दर से ख़ाली हाथ नहीं लौटा। खाने का उन्हें बेहद शौक था। डायबिटिक होने के वजह से खुद तो ज़्यादा नहीं खाते थे, लेकिन खिलाते ख़ूब थे। पान उनकी जान था। शायरी के दीवाने थे। रुबाई में गहरी दिलचस्पी थी, लिख भी लेते थे लेकिन कभी ज़ाहिर नहीं किया। पच्चीस हज़ार रेकॉर्ड उनकी अलमारी में रखे थे। हर गाने की अलग डायरी बनाते थे, जिसमें फ़िल्म सहित सारी जानकारी होती थी और क्या कहें... नेक ज़िंदगी को दिल से सलाम।

Friday, September 11, 2009

कभी घाटे का सौदा नहीं होता अन्नू कपूर से मिलना !


ये एक ऐसा शख़्स है जिसकी रूह में संगीत ख़ून की तरह बहता रहता है. नाटे क़द का ये इंसान अदाकारी,एंकरिंग और संगीत के हुनर का एक ऐसा सितारा है जिसे आम आदमी अपना सा समझता है . शायद यही ख़ूबी अन्नू कपूर को एक सामान्य कलाकार की ह्द से उठा कर विशिष्ट बना देती है. बना देती है उसे एक लोक-नायक जिसे कबीर,ख़ुसरो,ओशो,नीरज की बानियाँ मुँहज़ुबानी याद हैं. अन्नू भाई की ख़ूबी यह है कि वे अच्छी बात कहने का मौक़ा नहीं चूकते. यदि आप उनकी महफिल हैं तो बिला शक उन्हीं से रूबरू हैं. अगर मामला संगीत का हो तो वे किसी बड़े से बड़े आयोजक की परवाह किये बग़ैर किसी बदतमीज़ी और बदइंतज़ामी पर तंज़ करने या उसे फ़टकारने से नहीं बचते.

9 सितम्बर को अन्नू कपूर मेरे शहर इन्दौर में थे. यहाँ हमारी चौपाल नाम की संस्था द्वारा जुनून सात सुरों का नाम से एक संगीत प्रतिस्पर्धा का आयोजन था और अन्नू भाई बतौर प्रस्तोता तो इस शो में थे ही लेकिन उसके पहले उन्होंने स्थानीय निर्णायकों द्वारा 400 गायक-गायिकाओं में से चुनकर दिये गए 100 प्रतिस्पर्धियों को सुना.फिर इन 100 में से 24 ऐसी आवाज़े चुनीं जो एक शो के रूप में फ़ायनल प्रतिस्पर्धा में शरीक हो सकें.
सौ कलाकारों को जिस धीरज और तन्मयता से अन्नूभाई ने सुना वह अदभुत था. वे अपने साथ मुम्बई से आए साज़िन्दों के साथ इन सौ आवाज़ों की ज़बरदस्त मशक्क़त करवाते रहे. किसी को सुनते तो सुझाते आपने सुर थोड़ा ऊँचा ले लिया है सुर बदलिये,आपकी आवाज़ को ये गीत सूट नहीं करेगा...ऐसा करिये आशा जी का नहीं गीता दत्त का कोई गीत ट्राय कीजिये. यदि किसी गीत की कोई कम्पोज़िशन ठीक से गाई नहीं जा रही तो वे गाकर बताने लगते कि इस पंक्ति को यूँ नहीं ...ऐसे गाया गया है और आप भी ऐसे ही गाइये. साज़िन्दों से लय बढ़ती जा रही हो तो तुरंत रोक कर कहेंगे..दादा प्लीज़ थोड़ा टेम्पो बढ़ाइये न....कभी कोई पीस की-बोर्ड पर बजाया जा रहा हो तो वे रोक कर मेंडोलिन वाले वादक से कहने लगते...भैया...इसे आप उठाइये न. अन्नू भाई ने 100 गायक-गायिकाओं को तक़रीबन दो दिन सुना,गुना और उनके साथ गुनगुनाया. बाद में जो 24 कलाकार चुनें गए उनकी देर रात तक रिहर्सल करवाई.उन्हें तराशा और बार बार एक ही बात को बेहतर कहने के लिये प्यार से लताड़ा भी.

अन्नू कपूर एक ऐसा शख़्स है जिसे संगीत,शायरी,साहित्य और अभिनय घुट्टी में मिला है. वे अपनी स्वर्गीय पिता मदनलाल कपूर की नौटंकी में काम कर चुके हैं और मध्यप्रदेश,राजस्थान,बिहार, उ.प्र.के गाँव गाँव घूम चुके हैं. उन्हें हर अंचल के पहनावे,लोक-संगीत,भोजन और रीति-रिवाजों के साथ साथ ज़ुबान और लहजे का अच्छा ख़ासा ज्ञान है. वे सितारा होकर भी एक साधारण आदमी की तरह रहना पसंद करते हैं.उनके मन में देश हर वक़्त स्पंदित होता रहता है. हिन्दी चित्रपट गीतों के तो वे एनसायक्लोपीडिया कहे जा सकते हैं..कोई गीत गाइये...गीतकार का नाम पूछिये,संगीतकार का नाम पूछिये...वे फ़ट से बता देंगे....और यदि नहीं बता पाए तो आपसे जानना चाहेंगे कि सही क्या है. उनमें कुछ जानने और मालूम करने की करामाती जीजिविषा है...चाहना है जिज्ञासा है. उन्होंने बहुत संघर्ष किया है. संघर्ष आज भी है क्योंकि उनकी फ़ितरत का कलाकार बिक नहीं सकता. अन्नू कपूर के पास रहिये तो लगता है कोई लोकगीत गूँज उठा है, कोई कविता झर रही है,कोई अच्छा वाक़या जीवंत हो उठा है. अन्नू कपूर से मिलना कभी भी घाटे का सौदा नहीं है क्योंकि उनसे मिलने के बाद आप जितना जानते हैं,उसमें कुछ और इज़ाफ़ा हो जाता है.


(चित्र इन्दौर के ही कार्यक्रम का है और अन्नू कपूर के साथ माइक्रोफ़ोन पर है ख़ाकसार)

Thursday, June 18, 2009

ट्वेंटी-20 के लिये भी चुन लिये जाते केप्टन मुश्ताक़ अली !


आज (18जून) जब ट्वेंटी-ट्वेंटी क्रिकेट के सेमीफ़ायनल प्रारंभ हो रहे है तो केप्टन मुश्ताक़ अली याद कुछ ज़्यादा ही आ रही है. एक तो आज उनकी चौथी बरसी है और मन में यह विचार उमड़-घुमड़ रहा है कि काश मुश्ताक़ साहब यदि आज भी खेल रहे होते तो क्रिकेट के इस नये फ़ॉरमेट में भी फ़िट होते और भारतीय टीम की नुमाइंदगी ज़रूर कर रहे होते.उनके स्टाइल में एक ऐसी रवानी थी कि वे टेस्ट हो या वन डे या आजकल का ट्वेंटी-ट्वेंटी;हर जगह अपनी ख़ास मौजूदगी दर्ज़ करवाते.हम इन्दौरवासियों को उस्ताद अमीर ख़ाँ,मक़बूल फ़िदा हुसैन,लता मंगेशकर,कर्नल सी.के.नायडू,राजेन्द्र माथुर के साथ जिस शख़्स के अपना कहने बहुत फ़ख्र हासिल है उसमें केप्टन मुश्ताक़ अली का नाम भी बहुत इज़्ज़त से शुमार है.आज़ादी से पहले इन्दौर के होल्कर क्रिकेट टीम की तूँती पूरे देश में बोलती थी और केप्टन मुश्ताक़ अली उसके एक ख़ास सितारे थे. एक मुलाक़ात पर आज मुश्ताक़ साहब की एक अहम याद.


वो एक बरसाती दिन था और क्वालिस में सवार मुश्ताक़ साहब, सुशील दोशी और मैं इन्दौर से उज्जैन के सफ़र में थे। उज्जैन में हिन्दी समाचार पत्र नईदुनिया द्वारा पाठकों के लिए विश्व कप क्रिकेट के बाद आयोजित प्रतियोगिता के ख़ास मेहमान के रूप में मुश्ताक़ साहब और सुशीलजी आमंत्रित थे। मुझे कार्यक्रम को एंकर करना था.उज्जैन रवानगी से पहले ठीक वक़्त पर अपना चिर-परिचित नीला ब्लेज़र पहने मुश्ताक़ साहब पारसी मोहल्ले स्थित घर के बरामदे में एकदम चाक-चौबंद तैयार थे। उन्होंने वहॉं पं. नेहरू के साथ अपना चित्र दिखाकर मुझसे पूछा - क्या आप जानते हैं पं. नेहरू और मुझमें क्या समानता है ? मैंने मना किया, उन्होंने बताया - ये देश के ओपनिंग प्रधानमंत्री हैं, मैं ओपनिंग बैट्समैन। इनका रेकॉर्ड भी नहीं तोड़ा जा सकता और न मेरा। इनके पहले तो अब कोई देश के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ले संभव नहीं और विदेशी धरती पर मेरे पहले अब कोई शतक मारे यह भी संभव नहीं। इस लिहाज़ से मेरे व पंडितजी के रेकॉर्ड अनब्रेकेबल हैं।

हास्य अभिनेता जॉनी वाकर के गुज़र जाने पर हमारी सांस्कतिक संस्था श्रोता बिरादरी के आयोजन में भी मुश्ताक़ साहब पधारे और जॉनी भाई की यादों को ताज़ा किया। बिना किसी ना-नुकुर के वे बिरादरी की बिछात पर बैठे, बतियाए। वे जब भी मुंबई जाते, जॉनी वाकर साहब के मेहमान ज़रूर होते। इन्दौर के कई आयोजनों में उनसे मुलाक़ात होती थी और उनकी फ़िटनेस देखकर लगता था कि इनसे कम से कम स्वास्थ्य के मामले में कुछ सीखना चाहिए। बरसों तक उन्हें नियमित रूप से इन्दौर के रेसीडेंसी इलाक़े में शाम ढले सैर करते देखा जाता रहा.

नईदुनिया के ही एक आयोजन में अभिनय सम्राट दिलीप कुमार कैप्टन मुश्ताक़ अली को प्रेक्षकों में देखकर अभिभूत हो गए थे। जिस सुपर स्टार को देखने के लिए नईदुनिया प्रांगण में हज़ारों लोग विचलित थे, सुनहरी परदे सुपर स्टार क्रिकेट के सुपर स्टार मुश्ताक़ साहब को देखकर अपने आपको रोक नहीं पाया एवं मंच से उतरकर उनसे गले मिला गले मिला। उस कार्यक्रम की सदारत राज्यसभा की उप-सभापति नजमा हेपतुल्ला कर रहीं थी लेकिन दिलीप साहब ने अपने संबोधन की शुरूआत “मोस्ट रिस्पेक्टेड केप्टन मुश्ताक़ अली” . दो-तीन बरस पहले वरिष्ठ पत्रकार श्री जवाहरलाल राठौर के अमृत महोत्सव में लोकसभा स्पीकर श्री सोमनाथ चटर्जी को स्मृति चिह्न देने मुश्ताक़ साहब को मंच पर बुलाया गया तो सोमनाथ दा इस अवसर पर चमत्कृत-से थे।

नई पीढ़ी को यदि मुश्ताक़ साहब के स्टाइल की बानगी का अहसास करना है तो यह मान कर चलिये कि विवियन रिचर्ड्स से लेकर क्रिस गैल, हर्शल गिब्स,सचिन तेंदूलकर,सनथ जयसूर्या,शाहिद अफ़रीदी,वीरेंद्र सहवाग तक ये सभी खिलाड़ी मुश्ताक़ अली शैली का ट्रेलर भर हैं..कैप्टन मुश्ताक अली उनके खेल के साथ उनकी शराफ़त के लिए भी याद किए जाएँगे। शहर इन्दौर का पता देने वाले इस महान खिलाड़ी को को चौथी बरसी पर ख़िराजे अक़ीदत.

Friday, April 24, 2009

अशोक चक्रधर ; शब्द का चितेरा;कविता का दिव्य-स्वर


अभी पिछले हफ़्ते ही की बात है कि हिन्दी कविता के नामचीन हस्ताक्षर अशोक चक्रधर को अपने नगर न्योतने का मौक़ा मिला. सुनता तो उन्हें अस्सी के दशक की शुरूआत से ही आया था और एक दो अवसरों पर मिला भी लेकिन चूँकि इस बार मेज़बान का हक़ अदा करना था सो नज़दीक़ी कुछ ज़्यादा रही. सच कहूँ अशोक चक्रधर एक मंचीय हास्य कवि से कहीं ऊपर की शख़्सियत हैं.जिस तरह का जीवन वे जीते हैं उसमें क़ामयाबी,पैसा,शोहरत और प्रचार बड़ी मामूली चीज़ें हैं.कारण यह कि अशोकजी ने जीवन के यथार्थ को भोगा है और बहुत संघर्ष कर वे आज इस मुकाम तक पहुँचे हैं. वाणी का विलास देखना हो अशोक चक्रधर से मिलिये,कविता का शिल्प देखना हो अशोक चक्रधर से मिलिये,वाकपटुता देखनी हो तो अशोक चक्रधर से मिलिये,सादगी देखनी हो तो अशोक चक्रधर से मिलिये,सब जानने के बाद भी विद्यार्थी कैसे बना रहा जाता है यह जानना हो तो अशोक चक्रधर से मिलिये, कवि होते हुए प्रबंधकीय कौशल कैसे हासिल करना यह जानना हो तो अशोक चक्रधर से मिलिये,कविता के अलावा चित्रकारी,साहित्य,कहानी,पत्रकारिता,फ़ोटोग्राफ़ी,नृत्य,संगीत,लोक-संगीत,रंगकर्म,प्रसारण,प्राध्यापन की इतर विधाओं के बारे में भी कैसे रूचि रखी जाती है और इन सब का उपयोग अपनी ज़िन्दगी को क़ामयाब बनाने के लिये कैसे किया जाता है ये जानना हो तो अशोक चक्रधर से मिलिये. आप सोच रहे होंगे कि मैंने इतनी बार अशोक चक्रधर का नाम दोहराया क्यों.देखिये मैं हूँ विज्ञापन की दुनिया का आदमी.अपनी स्क्रिप्ट (जिसे इश्तेहार की तकनीकी भाषा में कॉपी कहा जाता है)में जितनी बार अपना ब्राँडनेम शुमार करूंगा,वज़न बढ़ेगा. ये तो मज़ाक़ की बात हो गई,मैं क्या अशोक चक्रधर नाम के ब्राँड को प्रमोट करूंगा. लेकिन हाँ ये ज़रूर कहूँगा कि अशोक चक्रधर निश्चित रूप से एक क़ामयाब ब्राँड हैं.बल्कि वे हमारी माँ हिन्दी के ब्राँड एम्बेसेडर हैं.वे जिस सादी भाषा में बतियाते हैं,कविता लिखते हैं और अपने आप को व्यक्त करते हैं वही सच्ची हिन्दी है. उनके बोलने में अमीर ख़ुसरो सुनाई देते हैं.तुलसी,बिहारी,मीरा,सूर से लेकर काका हाथरसी,गोपाल व्यास और शरद जोशी सुनाई देते हैं.अशोक चक्रधर में हिन्दी कविता बोलती सुनाई देती है.

अशोक चक्रधर की सबसे बड़ी ख़ासियत है उनकी जीवंतता. उसमें समोया हुआ निश्छल ठहाका.निराभिमानी इंसान जो हर वक़्त आपसे बातें करते हुए कविता की एक नई इबारत गढ़ लेता है. मानसिक चैतन्यता और स्मृति ऐसी कमाल की कि आपसे बीस-तीस साल बाद भी मिलें तो कोई संदर्भ तलाश ही लें.वे साठ के पास आते आते भी नये ज़माने की तकनीक से बाख़बर रहते हैं.हिन्दी यूनिकोड के लिये उन्होंने ख़ासी मशक़्कत की है. अशोक चक्रधर इंटरनेट पर एक बड़ी उपस्थिति हैं.वे प्रतिपल अपने को अपडेट रखते हैं.अशोक भाई इस बार नई-नकोरी संस्था मोरपंख के न्योते पर काव्य-पाठ के लिये इन्दौर (22 अप्रैल 2009) आए थे? प्रसंग था श्री श्याम शर्मा द्वारा हिन्दी सुलेख की पुस्तिका तुरंत सीखो;सुन्दर लिखो के विमोचन का. इस बार के इंदौर प्रवास के पहले मैंने अशोक भाई से पिगडम्बर स्थित लता-दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संग्रहालय देखने का आग्रह किया था. कवि-सम्मेलन ख़त्म होने के बाद खाना खाया और सोते सोते लगभग दो बज गए लेकिन अशोक भाई को याद था कि पिगडम्बर चलना है.वे सुबह सात बजे अपनी सहचरी वागेश्वरीजी के साथ होटल की लॉबी में तैयार मिले.मेरे शहर इन्दौर से तक़रीबन बीस किलोमीटर दूर है सुमन चौरसिया स्थापित मंगेशकर संग्रहालय. कार से जब पहुँचे सुमन भाई के ख़ज़ाने से रूबरू हो चक्रधर दम्पत्ति तो अभिभूत हो गए. इन्हीं लोगो ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा को जब फ़िल्म पाक़ीज़ा के अलावा सुमन भाई दीगर कई आवाज़ों में सुनाया तो अशोक भाई वाह वाह कर उठे. राधे ना बोले ना बोले ना बोले रे को लता मंगेशकर की आवाज़ में तो कई बार सुना था वागेश्वरीजी ने लेकिन संगीतकार सी.रामचंद्र की आवाज़ के रेकॉर्ड किये हुए एक प्रायवेट कार्यक्रम का सीडी जब सुमन भाई ने सुनवाया तो हम सबजैसे स्तब्ध से थे. आज जय हो को लेकर चुनाव प्रचार अभियान में ख़ूब शोर मचा हुआ है. सुमन भाई ने चुनाव प्रचार के कई एल.पी रेकॉर्ड अशोक जी को सुनवाए और चौंका दिया .क्या गुज़रे ज़माने में भी संगीतमय प्रचार हुआ करता था.
अपनी बात ख़त्म करूं उसके पहले ये भी कहता चलूँ कि अशोक चक्रधर के कंठ में कविता और शब्द आकर निहाल से हो जाते हैं. मंच पर अपनी बात कहते हुए उन्हें किसी अतिरिक्त पराक्रम की आवश्यकता नहीं होती.वे गुफ़्तगू करते हुए ही आपको ठहाका लगवा दें,कब रूला दें,कब चौका दें और कब वाह लूट लें ; वे जब मंच पर होते हैं तो तनाव तिरोहित हो जाता है और श्रोता के मन का आनंदभाव अपने शीर्ष पर होता है.सुननेवाले और आयोजक के इर्द-गिर्द मौजूद माहौल से वे इतनी सारी बातें पिक-अप कर लेते हैं कि आपके पास चकित होने के अलावा और कोई चारा नहीं होता. श्लील हास्य और उस पर तारी होता अशोक चक्रधर का निश्कपट संवाद...क्या बात है !
ये बताने का मक़सद सिर्फ़ इतना सा कि बीती रात की थकान के बावजूद अशोक चक्रधर ने किसी नये कौतुक को जानने और समझने के लिये समय निकाला. पिगडम्बर के पास ही महू पहुँचे,वागेश्वरीजी को ख़रीदी करवाई और हमारे साथी राजेश खण्डेलवाल के आग्रह पर महू के ख्यात चित्रकार दिव्यकांत द्विवेदी के काम को भी निहारा. विश्व-भर में चर्चा में रहने वाले इन्दौरी नाश्ते के व्यंजन पोहे की फ़रमाइश की और सपत्नीक उसक लुत्फ़ भी उठाया.
अशोक चक्रधर पर एक मुलाक़ात की ये पोस्ट इसलिये लिख गया क्योंकि एक सेलिब्रिटि होते हुए भी इस समर्थ कवि ने अपने भीतर के सामान्य इंसान को ज़िन्दा रखा है. मुझे तक़रीबन हर हफ़्ते किसी न किसी सितारा व्यकित्व से मिलने का अवसर आता ही रहता है लेकिन बिरले ही होते हैं जो ज़मीन से कटते नहीं. अशोक चक्रधर नामवर होते हुए भी सरल-सहज हैं और ऐसा बने रहने में आनंदित रहते हैं.उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है.समझा सकता है . मैने भी सीखा..आपको मौक़ा मिले तो मत चूकियेगा;
अशोक चक्रधर परिवेश,परम्परा और प्रगति के सजग पहरूए हैं

Wednesday, April 8, 2009

सुरयोगी पं.कुमार गंधर्व : एक अविस्मरणीय प्रसंग.


मालवा की बात करें तो रूपमती-बाजबहादुर की प्रेमगाथा से पगे मांडू,महाकालेश्वर,राजा भर्तहरी,महर्षि सांदिपनी,कविवर डॉ.शिवमंगल सिंह सुमन और मोक्षदायिनी सलिला शिप्रा की नगरी उज्जैन,लोकमाता अहिल्या बाई होलकर,अंतरराष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन और तान सम्राट उस्ताद अमीर ख़ा साहब के नगर इन्दौर के बाद सबसे ज़्यादा और शिद्दत से याद आते हैं देवास को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले सुरयोगी पं.कुमार गंधर्व याद आते हैं.आज यानी 8 अप्रैल को कुमारजी का जन्म दिन है.

ग्वालियर घराने की गायकी को आत्मसात करने वाले पं.कुमार गंधर्व एक विलक्षण स्वर साधक ही नहीं अदभुत प्रयोगधर्मी इंसान भी थे. कहाँ धारवाड़(कर्नाटक) में पैदा हुए,मुंबई में पं.बी.आर.देवधर से तालीम लेने आए और कहाँ मालवा के छोटे से क़स्बे देवास में आकर बसे. कुमारजी के हिस्से में सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने मालवा की लोकधुनों को लेकर गंभीर शोध एक चिंतन किया.ऐसी लोक धुनें जिनमें पूरा मालवी जन-जीवन समोया रह्ता आया है , कुमारजी ने अपनी सांगीतिक सोच से तराशा और उसे अविस्मरणीय अंदाज़ में गाया भी.उनका गीत-वर्षा एलबम तो संगीत की दुनिया के लिये एक दस्तावेज़ है.कबीर के निरगुणी पदों को उन्होंने एक नई-नकोरी रंगत दी. सूर,तुलसी और मीरा के भक्ति पदों का अपनी आवाज़ से कायाकल्प किया. हाँ यह भी जोड़ना चाहूँगा कि गायन के दौरान कुमारजी मे पोशीदा अदाकार भी बरबस की बाहर आ जाता था और श्रोता को रूबरू करवाता था एक रूहानी तबियत.


वे हमेशा से नयेपन के पक्षधर रहे और मानते रहे कि घरानों के होने से किसी कला का विकास नहीं होता. कुमारजी को तक़रीबन चार प्रस्तुतियों में नज़दीक से देखने –सुनने का मौक़ा मिला.मैंने उनमें स्पंदित एक अवधूत के दर्शन ही किये. वे सादा तबियत इंसान थे और मन के वैभव में यक़ीन करते थे. उनमें भारतीय शास्त्रीय संगीत की ऐसी विरासत हर लम्हा मौजूद रहती थी जो उन्हें दीगर कलाकारों से अलहदा बनाती थी. अस्सी के दशक के बीच में मुझे मध्य-प्रदेश के संस्कृति विभाग के आयोजन उत्सव में कुमारजी के गायन कार्यक्रम का सूत्र-संचालन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ था. ग्रीन रूम में जब मैं उनसे मिलने पहुँचा तो वे तानपुरे की जोड़ी को ट्यून करने में नि:मग्न थे. वातावरण इतना अनुशासित और तन्मय था कि मैं उनसे यह पूछना ही भूल गया कि आज वे अपने गायन का आरंभ किस राग से करने वाले हैं.

कुमारजी से जुड़ा एक वाक़या मुझे बहुत छूता है. जिन दिनों धारावाहिक रामायण अपनी लोकप्रियता के शीर्ष पर था उन दिनों और ऐन इस धारावाहिक के प्रसारण के समय पर ही किसी आयोजक नें कुमारजी का गायन मुम्बई में रख लिया. सुनने वालों में कुमारजी के तीन सखा और मराठी के जाने माने साहित्यकार पु.ल.देशपांडे(जिन्हें आत्मीयता से पुल भी संबोधित किया जाता है)गायक वसंतराव देशपाण्डे,कुमार जी के शिष्य पं.पढरीनाथ कोल्हापुरे (सिने तारिका पद्मिनी कोल्हापुरे के पिता)भी मौजूद थे. मुंबई में कुमारजी को सुनने चार सौ पाँच सौ श्रोता इकट्ठा होना मामूली बाते थी. रामायण के प्रसारण के समय (सुबह नौ-साढ़े नौ) आयोजक ने कुमारजी के कार्यक्रम को आयोजित करने का जोखिम तो उठा ही लिया था. ख़ैर साहब इस प्रात:कालीन सभा में नियत समय पर अस्सी-नब्बे प्रतिबध्द श्रोता आ गए. तीनों कुमार मित्र श्रोताओं की उपस्थिति को लेकर थोड़े चिंतित हुए. कुमारजी ने सुबह का राग तोड़ी गाया. ये मित्र सोचकर अचंभित कि कुमारजी के गायन में अमूमन सुनाई देने वाले फ़ोर्स और तन्मयता से कहीं अधिक सँवरा हुआ था उस दिन का गायन..गायन पर कहीं इस बात का प्रभाव नहीं कि सुनने वालों की संख्या कितनी है. कार्यक्रम समाप्त हुआ ;सभी मित्र कुमारजी से मिलने मंच पर पहुँचे. पुल बोले कुमार (वे तू-तुकारे से ही एक दूसरे को संबोधित करते थे) आज तो तूने कमाल कर दिया. सुनने वाले इतने कम फ़िर भी तेरी गायकी बेजोड़,विलक्षण,अप्रतिम.
ऐसा कैसे हुआ रे कुमार ? कुमारजी ने जो जवाब दिया वह शायद उन जैसा एक महान कलाकार ही दे सकता था.
कुमारजी बोले....गाने बैठना तो बाहर क्या देखना ...गाना यानी अपने भीतर देखना.

ज़माना बदलेगा,संस्कार भी शायद बदलेंगे और लोगों का सोच भी; लेकिन कुमार गंधर्व की गायकी का जादू अजर-अमर रहेगा.

Friday, April 3, 2009

फ़िराक़ की शायरी का चलता फ़िरता एनसाइक्लोपीडिया


ज़िन्दगी में कई मुलाक़ातें इतनी अनायास होती है कि जब तक आप उस शख़्स को जानें उसे पहचानें और उसके कुछ नज़दीक आएं,समय अपना खेल खेल जाता है. आज एक मुलाक़ात पर जिनकी बात कर रहा हूँ वे भी कुछ ऐसे ही मिले और बस चले गए.इतनी दूर जहाँ से कोई वापस नहीं आता. गोवर्धन भाई था उनका नाम.तख़ल्लुस था यक्ताँ...गोरधन भाई यक्ताँ... गुजराती ज़ुबान,नाटा क़द और चमकती,चपल आँखें,जैसे हर लम्हा कुछ पढ़ कर व्यक्त कर देने को बेसब्र हों.

गोवर्धन भाई जिन्हें गोरधन भाई कहना ज़्यादा आत्मीय लगता था , अज़ीम शायर जनाब फ़िराक गोरखपुरी साहब के ज़बरदस्त फैन थे। फ़िराक़ साहब का दीवान उन्हें ज़ुबानी याद था.उर्दू क्लासिकी शायरी की तफ़सील आप कभी भी उनसे पूछ लीजिये,गोरधन भाई हाज़िर.उन्हें किसी भी उन्वान पर एक से ज़्यादा शे’र तत्काल याद हो आते थे .रोज़ी रोटी चलाने के लिये मेरे शहर में उनकी एक चप्पल की दुकान थी जहाँ चप्पलें कम बिकतीं , शायरी ज़्यादा हुआ करती. गोरधन भाई की दुकान यानी शायरी और शायर. उनकी दुकान एक तरह से मेरे शहर के तमाम शायरों का पसंदीदा ठिया हुआ करता था. मजमा कुछ यूँ जमता कि छोटा-मोटा मुशायरा उस दुकान पर मंसूब हो जाना बड़ी मामूली बात थी.

गोरधन भाई कोई वाहन चलाना नहीं जानते थे सो कुछ बरसों बाद जब उनकी दुकान बंद हो गई तो वे अपने घर में तक़रीबन क़ैद से हो गए. जब बच्चों में से किसी को वक़्त मिलता स्कूटर पर ले जाता. इस तरह से आखिरी कुछ बरसों में गोरधन भाई शेरो-शायरी की नशिस्तों से ग़ैर-हाज़िर रहने लगे.

उन्हें ज़माना कभी भी नामी शायरों की जमात में शुमार नहीं करेगा लेकिन जब जब भी उर्दू से बेइंतहा मुहब्बत करने वालों की फ़ेहरिस्त बनाई जाएगी, गोरधन भाई का नाम उसमें ज़रूर होगा. शायरी उनके लिये एक तरह से ऑक्सीजन का काम करती थी. ज़ालिम मौत ने जिस दिन गोरधन भाई की ड्यू डेट तय की उस दिन उन्हें साँस लेने में ख़ासी तकलीफ़ हो रही थी और लेटा नहीं जा रहा था. नाक और हाथ में नलियाँ लगीं हुईं थी और जनाब डॉक्टर को फ़िराक़ का शे’र सुना रहे थे...आहिस्ता...आहिस्ता.

गोरधन भाई उर्दू या हिन्दी में लिख नहीं पाते थे. उनकी डायरी मे शे’र गुजराती में लिखे होते थी. तलफ़्फ़ुज़ ऐसा कमाल का कि उर्दू पढ़ा-लिखा आदमी भी उनके उच्चारण के सामने पानी भरे. अपनी शायरी सुनाने में वे बहुत कम दिलचस्पी लेते थे. एक तरह का वीतराग था उनमें अपनी बात कहने के लिये. शुरू शुरू में मुशायरों के मेज़बान गोरधन भाई को शायरों की पंक्ति में बिठाने में एक तरह की हीन भावना से ग्रसित थे.लेकिन बाद में जब वे गोरधन भाई के हुनर से वाकिफ़ हो गए तो उन्हें अपनी ग़लती का अहसास हुआ.
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गोरधन भाई की पैदाइश हैदराबाद सिन्ध (अब पाकिस्तान में) की थी. चमड़े का पुश्तैनी कारोबार था. विभाजन के बाद परिवार बडौदा चला आया और वहाँ किशोर गोरधन भाई उर्दू शायरी के जानकारों के बीच उठने-बैठने लगे और ज़िन्दगी भर के लिये शायरी के दीवाने बन गए.

बडौदा के बाद गोरधन भाई का परिवार इन्दौर आकर बस गया और उन्होंने अपने परिवार की रोज़ी-रोटी के लिये अपना पुश्तैनी कारोबार जारी रखा. चप्पलें ऐसी बनाते कि कुछ ख़ास लोग उन्हीं की दुकान से बरसों तक ग्राहक बने रहे.इन्दौर के शायरों में जनाब शादाँ साहब उनके जिगरी थे. ये साथ बरसों रहा. जब अनायास शादाँ साहब गुज़र गए तो उनके जनाज़े का साथ चल रहे गोरधन भाई को बिलखता देख लोग समझे कि ये मरहूम शायर का कोई रिश्तेदार है. अपने दोस्त की मय्यत में आँसू बहाते गोरधन भाई ने शादाँ साहब के लिये ये शेर कहा था...

मुझसे पहले ही मेरा दोस्त गया मुल्के अदम
ये भी दिन आके रहेगा मुझे मालूम न था।


फ़िराक़ गोरधन भाई के लिये पहली और अंतिम पसंद थे,. फ़िराक़ उन्हें इस तरह से रटे हुए थे जैसे किसी शायर को अपनी शायरी याद रहती है. फ़िराक़ के न जाने कितने शे’र याद थे , गिनती नहीं लगाई जा सकती.एक तरह से फ़िराक़ उनकी कमज़ोरी थे. आप फ़िराक़ की बात शुरू कर दीजिये, गोरधन भाई सब काम छोड़ कर आपको अपने महबूब शायर का क़लाम सुनाने लग जाएंगे. एक तरह से वे फ़िराक़ का जीता जागता एनसाइक्लोपीडिया थे. उर्दू शायरी में जो कुछ दर्शन या सूफ़ियाना तबियत का था उन्हें कंठस्थ था. ख़ुद उनकी शायरी में इंसानियत के रंग जबमगाते थे , ये रहे उनके दो शे’र

किसी लंगड़े से कहना दौड़ के परबत पे चढ़ने को
यक़ीनन ये ख़ुदा की शान में अपमान जैसा है

वो बूढ़ा साँप जिससे कैंचुली छोड़ी नहीं जाती
जवाँ साँपों को नंगा,बेअदब,बेशर्म कहना है


उनकी ज़िन्दगी का दूसरा प्यार था आध्यात्मिकता.वे ओशो साहित्य के परम प्रेमी थे. इसके अलावा जन्म-पत्रिका देखने में भी उन्हें महारथ हासिल थी. नब्बे के दशक में मैं व्यक्तिगत रूप से अपने कारोबर के एक मुश्किल मोड़ से गुज़र रहा था. एक दिन गोरधन बाई मेरे दफ़्तर प्रकट हुए , उन्होंने मुझसे मेरी जन्म तिथि पूछी, एक काग़ज़ लिया और कुछ सोच कर बोले संजय भाई...फ़लाँ तारीख़ के बाद आपकी सारी परेशानी दूर हो जाएगी. उनकी गणना सटीक थी.वैसा ही हुआ.

मुशायरों में वे कभी भी अपनी उस ग़ज़ल को दोहराते नहीं थे जिसे वे पिछले मुशायरे में पढ़ चुके होते. उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर भी बेमिसाल था. बतकही के तो वे उस्ताद थे. किसी विषय पर यदि वे बातचीत के मूड में आ जाते तो मालूम ही नहीं पड़ता था कि कितना वक़्त उनसे बात करते हुए गुज़र गया.यूँ इन्दौर में गोरधन भाई की इज़्ज़त करने वालों की तादात कुछ कम नहीं थी. फ़िराक़ के प्रति उनकी दीवानगी और ज्ञान को कई लोग तस्लीम करते थे और वे सब फ़िराक़ साहब के इंतक़ाल पर अपना अफ़सोस ज़ाहिर करने गोरधन भाई के घर पहुँचे.मुझे लगता है शायरी के मुरीदों का यह आदर फ़िराक़ साहब और गोरधन भाई दोनो के प्रति था.

दु:ख की बात यह है कि सौ –दो सौ ग़ज़ल कह चुके गोरधन भाई का कोई मजमुआ (संकलन) ज़माने के सामने आ न सका. बुध्दिजीवियों या अदब की दुनिया में दुकानदारी चलाने वाले लोग सादा तबियत और नेक इंसान गोरधन भाई को कभी वह इज़्ज़त न दे सके जिसके वे हक़दार थे. कई युवा शायरों को उन्होंने बतियाते हुए शायरी का फ़न सिखा दिया. कुर्ता पजामा और साधारण सी चप्पल गोरधन भाई का स्थायी पहनावा था और ज़िन्दादिली उनका स्वभाव. आर्थिक रूप से वे कभी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं रहे; लेकिन उनका ठहाका बादशाही होता था. गोरधन भाई के जाने से इन्दौर की शायरी की फ़िज़ाँ से ऐसा एक सदाबहार दरख़्त चला गया जिसकी छाँह में सुक़ून था, इत्मीनान था, ख़ुलूस था,गोरधन भाई यक्ताँ के जाने से शायरी का एक ख़ुशबूदार किताब गुम हो गई. अपने बारे में क्या ख़ूब कह गए गोरधन भाई

वक़्त से पहले अगर यक्ताँ मर गया
गर्दिशें दौराँ बहुत पछताएगी


गोरधन भाई किस बलन के शायर ये बताने के लिये
मुलाहिज़ा फ़रमाएँ उनकी ये ग़ज़ल…।


ख़ौफ़ के एहसास के शेरो सुख़न तक ले चलो
या अदब को हौसले की अंजुमन तक ले चलो

रोशनी तुमको न देता हो दीया घर का अगर
आके बाहर ख़ुद को सूरज की किरन तक ले चलो


जिनको सब बेहतर नज़र आने लगे परदेस में
उन भरम पाले हुओं को अब वतन तक ले चलो

दर्स जो इंसानियत का सबको दे उस इश्क़ को
सोज़े दिल कहते हैं, जिसको उस जलन तक ले चलो

वो हिरन असली है या नकली पता चल जायेगा
आज की सीता को "यक्ताँ' उस हिरन तक ले चलो।

Monday, March 30, 2009

बापू-कथा के ओजस्वी वक्ता-गाँधीवादी नारायणभाई देसाई.


हमारे देश में भागवत कथाओं और रामकथा की वृहद परम्परा रही है. पिछले बरस जब इन्दौर में बापू कथा के लिये कुछ युवा साथी मिले तो कईयों के मन में कौतुक था कि दर-असल ये मामला क्या है. बाद में हमारी इस कथामाला संयोजक श्री अनिल भण्डारी ने स्पष्ट किया कि राष्टपिता महात्मा गाँधी के अनन्य सहायक श्री महादेवभाई देसाई के यशस्वी पुत्र श्री नारायणभाई देसाई ने इन्दौर में बापू कथा के लिये सहमति दे दी है और वे यहाँ पाँच दिन तक तक बापू के बचपन,दक्षिण अफ़्रीका यात्रा,भारत दर्शन,असहयोग आंदोलन और साम्प्रदायिक सदभाव पर बापू के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुअ बोलेंगे. नारायणभाई विगत कई वर्षों से बापू-कथा कर रहे हैं और गुजरात विद्यापीठ के कुलपति भी है. खरज में भरा उनका स्वर, ओजस्वी वाणी और बापू पर बोलने के लिये जैसा खरापन चाहिये वह सब नारायणभाई में मौजूद है. उनका इसरार ही नहीं निर्देश था कि आप मेज़बानों को प्रतिदिन जो भी औपचारिकताएँ करना हो बेझिझक कीजिये,लेकिन मेरे नियत समय के अलावा.मैं तो प्रतिदिन अपने नियत क्रम के अनुसार ही बोलूंगा. गुजराती से बापू-कथा माला की शुरूआत करने वाले नारायणभाई अब हिन्दी में धाराप्रवाह कथा कर रहे हैं.

नारायणभाई के व्यक्तित्व की सबसे ख़ास बात यह लगी कि वे अपने जीवन-व्यवहार में बहुत अनुशासित है.कथा आयोजन के दौरान उनके निकट रहने पर मैंने यह जाना कि यह कड़ाई बापू की अनुशासनप्रियता की प्रतिध्वनि ही तो है. वे नाहक तामझाम में भी अपने आपको संलग्न कर अपनी एकाग्रता को भंग नहीं करना चाहते.आयोजकों से अपने लिये किसी तरह के फ़ेवर या प्रचार प्रसार की अभिलाषा नारायणभाई में मुझे भी नज़र नहीं आई. समय के पाबंद,सादा आहार, परिधान एकदम सामान्य और बापू-कथा यानी सिर्फ़ और सिर्फ़ बापू-कथा के लिये अपनी प्रतिबध्दता. फ़िजूल के किसी और आयोजन में जाने या स्थानीय उद्योगपतियों,पत्रकारों या गाँधीवादियों से मिलने या गप्पा-गोष्ठी की कोई बेसब्री मुझे उनमें नज़र नहीं आई. बस अपने काम से काम. आयोजन स्थल पर भी नारायणभाई प्रतिदिन ठीक पाँच बजे पहुँच जाते और आधे घंटे बाद कथा की शुरूआत कर देते. धाराप्रवाह बोलते पूरे ढ़ाई घंटे. कोई संदर्भ ग्रंथ आदि नहीं, हाँ एक साधारण की नोटबुक में कुछ नोट्स ज़रूर रहते उनकी टेबल पर.सुनी हुई और पढ़ी हुई बापू कथा करने वाले और बापू से सर्वोदय भाव की ताब में रहने वाले देसाई परिवार के सदस्य द्वारा की जाने वाली कथा का अंतर क्या होता है यह तो बापू-कथा में बैठ कर ही जाना जा सकता है. गाँधी भावधारा के अनुगामी नारायणभाई नियमित रूप से सूत कातते हैं.और उनका पोर्टेबल चरखा हमेशा उनके साथ रहता है. बापू कथा का विशेष आकर्षण होता है गाँधीजी के प्रिय भजनों का सस्वर गायन. इन पदों से कथा में रंजकता भी आती है और कथानक को भी गति मिलती है. नारायणभाई का आग्रह था कि स्थानीय कलाकार ही इसे गाएँ. पाँच दिन कहाँ निकल गए , मालूम ही नहीं पड़ा. विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि गाँधी-दर्शन और जीवन को इतने रोचक तरीक़े से समझाने वाला बेजोड़ टीकाकार नारायणभाई के अलावा देश में दूसरा नहीं है.

कथा जिस दिन समाप्त हुई,नारायण भाई उसी दिन रात को रेल से अहमदाबाद रवाना हो गए. ऐसा नहीं कि स्थानीय आयोजकों के बीच बैठकर अपनी प्रशंसा सुने जा रहे हों या पूछ रहें कि क्यों भाई कैसा रहा मजमा. मुझे रामकथा के विश्व-प्रसिध्द कथाकार संत श्री मोरारी बापू का ध्यान हो आ गया.वे भी अपनी कथा समाप्त होने के दिन ही दूसरे शहर रवाना हो जाते हैं.शायद इसमें यह् बात कथाकार के मन में रहती होगी कि कथा का प्रभाव मेल-मुलाक़ातों में नष्ट न हो और उस वातावरण की स्मति की जुगाली बनी रहे. नारायणभाई को इस कथा में सबसे आनंदित मैंने तब देखा जब सिख और बोहरा समाज के भाईयों द्वारा उन्हें सिरोपाव भेंट किया गया और पारम्परिक बोहरा टोपी भी पहनाई गई.हाँ इन्दौर प्रवास के दौरान मेरे सुझाव के तहत आयोजक उन्हें शहर के जेल में क़ैदियों से मिलवाने भी ले गए जिसे नारायणभाई न केवल सराहा बल्कि भोजन भी वहीं ग्रहण किया.

अस्सी के पार के नारायणभाई देसाई हमारे देश में बापू कथा के एकमात्र प्रवक्ता हैं.वैसा ही जीवन जीते हैं.गाँधी दर्शन और चिंतन ही उनके जीवन का एकमात्र ग्लैमर है. सादगी की बात करना और वैसा जीवनयापन करना कितना सहज है,नारायणभाई को देख-समझकर जाना जा सकता है. गाँधी विचार कभी मर नहीं सकता क्योंकि वह सर्वव्यापी,सर्वकालिक और समदर्शी है.गाँधीवादी नारायणभाई देसाई जब तक यह कथा बाँचते रहेंगे इस बात की पुष्टि भी होती रहेगी.

मेरे लिये पूज्य नारायणभाई को जानना और उनके निकट रह कर बापू-कथा का श्रवण करना जीवन की एक अनमोल निधि है.
सच कहूँ उनसे मिल कर लगा बापू से मिल लिया.....

Sunday, March 29, 2009

चिट्ठी का जवाब तत्काल से पहले देने वाले बालकवि बैरागी.


वैसे उनसे कम ही मिलना होता है क्योंकि वे ठहरे यायावर-कवि.कभी यहाँ कभी वहाँ.वे मेरे मालवा के हैं और मेरे घर के बुज़ुर्ग लगते हैं.सरस्वती हमेशा से उन पर मेहरबान रही है. वे हैं देश के जाने माने कवि श्री बालकवि बैरागी. हम उन्हें प्यार से दादा बालकविजी कहते हैं और मैं तो उन्हें काका साब कहता हूँ.एक पोस्ट में दादा पर लिखना टेड़ी खीर है.सो मुख़्तसर में ही बात कहना चाहूँगा.

दादा के बारे में ख़ास बात यह है कि उनके जैसा पत्र-व्यवहार करने वाला व्यक्ति मैंने अपने जीवन में नहीं देखा. मैं सालों तक उनसे चिट्ठी-पत्री के ज़रिये ही सम्पर्क में बना रहा. हालाँकि वे मेरे कवि पिता श्री नरहरि पटेल के युवा दिनों के अनन्य मित्र रहे हैं लेकिन मेरा उनसे सम्पर्क अपनी फ़ितरत से ही बना. और इस फ़ितरत का नाम चिट्ठी लिखना है. मुझे भी ख़तोकिताबत में मज़ा आता है और दादा तो सो समझिये चिट्ठी लिखनेवालों के आराध्य हैं. वे देर रात कविता पढ्कर यात्रा करें,संसद के सत्र से थक कर लौटे हों,अपने संसदीय क्षेत्र के लोगों से मेल-मुलाक़ात में मसरूफ़ रहे हों या परिवार की किसी ज़िम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हों वे आपकी चिट्ठी बाँचने और फ़िर उसका तत्काल जवाब देने में ज़रा भी देर नहीं करते.आप यक़ीन करें लेकिन यह सच है कि जिन दिनों दादा संसद सदस्य के रूप में दिल्ली में बसे थे तब सप्ताहांत में एक व्यक्ति ख़ासतौर पर दादा के नाम आई चिट्ठियों का बोरा लेकर दिल्ली पहुँचता था.

वे हाथ से ही पत्र लिखते हैं,उनका सुलेख इतना सुन्दर है कि काग़ज़ पर उनके हरूफ़ मोती जैसे दमकते हैं.बरसों से अंतर्देशीय पत्र में दीपावली शुभकामनास्वरूप एक नई कविता अपने परिजनों,काव्यप्रेमियों और कवि-साहित्यकार मित्रों को लिखते रहे हैं.मज़ा ये कि हर बार कविता का उन्वान दीया ही होता है और कविता या गीत का कोण सर्वथा नया होता है.वे खादी ही पहनते हैं और ज़िन्दगी की तमाम क़ामयाबियों के बावजूद उन्होंने अपनी पारम्परिक वेषभूषा धोती-कुर्ते को ही अपना स्थायी ड्रेसकोड या परिधान बना रखता है. कम लोगों को ये बात मालूम है कि आज श्रीमती सोनिया गाँधी की हिन्दी में जो थोड़ी बहुत भी रवानी सुनाई देती है उसमें दादा बालकविजी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है.

डायरी लिखने के मामले में भी वे अत्यंत नियमित रहे हैं और छोटी से छोटी बात को अपनी डायरी में दर्ज़ करना नहीं भूलते यथा आज सुबह जल्दी उठा लेकिन योगाभ्यास नहीं किया या आज डॉ.वैदिक (पत्रकार श्री वेदप्रताप वैदिक)आए थे और मेरे लिये कुर्ते का नया कपड़ा लाए.भोपाल के दुष्यंतकुमार संग्रहालय ने बालकवि की डायरी नाम से उनकी डायरी को प्रकाशित भी किया है. यदि उसके पन्ने पलटें तो पाएंगे कि उसमें बहुत मामूली बातें नोट की गईं हैं लेकिन बड़ी बात ये है कि नियमपूर्वक लिखीं गईं हैं.आप हम जानते ही हैं कि किसी बड़ी घटना को डायरी में लिखेंगे ऐसा सोच कर कितने बरसों तक हमारी डायरिया कोरी की कोरी या नई नकोरी ही रह जाती हैं.

दादा बालकविजी को विचलित देखना शायद ही किसी को नसीब हुआ हो. हाँ वे अपने माता-पिता की बात कर ज़रूर भावुक हो जाते हैं . (उन्होंने अपने आशियाने का नाम धापूधाम रखा है;उनकी वात्सल्यमयी माँ धापूबाई के नाम) दादा बेसाख़्ता ठहाके के मालिक हैं.सुर उनके गले में फ़बता है. उन्हें आप किसी भी कवि के बात पढ़वा लीजिये , वे अपनी कहन से मंच लूट लेते हैं.मालवी में अपनी काव्य-यात्रा शुरू करने वाले दादा बालकविजी आज माँ हिन्दी के वरेण्य सपूत हैं.उन्होंने बहुत ग़रीबी और बेहाली देखी है. मंगते से मंत्री तक शीर्षक की अपनी आत्मकथा में दादा ने नि:संकोच लिखा है कि मैंने भीख मांग कर अपने जीवन की शुरूआत की. वे डॉ.शिवमंगल सिंह सुमन के प्रति हमेशा आदर से भरे रहते हैं और कहते हैं कि सुमनजी की कृपा से बैरागी कुछ बन पाया. दादा की सबसे बड़ी बात है कि वे अपने गुरूजनों और वरिष्ठों के प्रति हमेशा कृतज्ञ बने रहते हैं.

वे आजकल नीमच में रहते हैं और ग्रामीण परिवेश में ही अपने आप को सबसे ज़्यादा आनंदित पाते हैं.मंच पर कविता पढ़ रहे हों,पत्र का जवाब दे रहे हों,रेशमा शेरा के लिये तू चंदा मैं चांदनी जैसा कालजयी चित्रपट गीत रच रहे हों या संसदीय समिति की बैठक में शिरक़त कर रहें हों वे अपना मालवी ठाठ नहीं छोड़ते.पिचहत्तर पार के दादा बेतहाशा यात्राएं करते हैं,सड़क से,हवाई जहाज़ से,रेल से लेकिन उनके कंठ में एक खाँटी इंसान हमेशा ज़िन्दा रहता है.

एक मुलाक़ात की पहली पोस्ट दादा बालकवि बैरागी के नाम कर मैं ही उपकृत महसूस कर रहा हूँ...मुलाक़ातें जारी रहेंगी.

हाँ यदि आप मेरी बात की पुष्टि करना चाहें तो लिख डाले एक चिट्ठी दादा के नाम...पता नोट करें
श्री बालकवि बैरागी
धापूधाम,169,डॉ.पुखराज वर्मा मार्ग,नीमच-458551