Monday, March 30, 2009

बापू-कथा के ओजस्वी वक्ता-गाँधीवादी नारायणभाई देसाई.


हमारे देश में भागवत कथाओं और रामकथा की वृहद परम्परा रही है. पिछले बरस जब इन्दौर में बापू कथा के लिये कुछ युवा साथी मिले तो कईयों के मन में कौतुक था कि दर-असल ये मामला क्या है. बाद में हमारी इस कथामाला संयोजक श्री अनिल भण्डारी ने स्पष्ट किया कि राष्टपिता महात्मा गाँधी के अनन्य सहायक श्री महादेवभाई देसाई के यशस्वी पुत्र श्री नारायणभाई देसाई ने इन्दौर में बापू कथा के लिये सहमति दे दी है और वे यहाँ पाँच दिन तक तक बापू के बचपन,दक्षिण अफ़्रीका यात्रा,भारत दर्शन,असहयोग आंदोलन और साम्प्रदायिक सदभाव पर बापू के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुअ बोलेंगे. नारायणभाई विगत कई वर्षों से बापू-कथा कर रहे हैं और गुजरात विद्यापीठ के कुलपति भी है. खरज में भरा उनका स्वर, ओजस्वी वाणी और बापू पर बोलने के लिये जैसा खरापन चाहिये वह सब नारायणभाई में मौजूद है. उनका इसरार ही नहीं निर्देश था कि आप मेज़बानों को प्रतिदिन जो भी औपचारिकताएँ करना हो बेझिझक कीजिये,लेकिन मेरे नियत समय के अलावा.मैं तो प्रतिदिन अपने नियत क्रम के अनुसार ही बोलूंगा. गुजराती से बापू-कथा माला की शुरूआत करने वाले नारायणभाई अब हिन्दी में धाराप्रवाह कथा कर रहे हैं.

नारायणभाई के व्यक्तित्व की सबसे ख़ास बात यह लगी कि वे अपने जीवन-व्यवहार में बहुत अनुशासित है.कथा आयोजन के दौरान उनके निकट रहने पर मैंने यह जाना कि यह कड़ाई बापू की अनुशासनप्रियता की प्रतिध्वनि ही तो है. वे नाहक तामझाम में भी अपने आपको संलग्न कर अपनी एकाग्रता को भंग नहीं करना चाहते.आयोजकों से अपने लिये किसी तरह के फ़ेवर या प्रचार प्रसार की अभिलाषा नारायणभाई में मुझे भी नज़र नहीं आई. समय के पाबंद,सादा आहार, परिधान एकदम सामान्य और बापू-कथा यानी सिर्फ़ और सिर्फ़ बापू-कथा के लिये अपनी प्रतिबध्दता. फ़िजूल के किसी और आयोजन में जाने या स्थानीय उद्योगपतियों,पत्रकारों या गाँधीवादियों से मिलने या गप्पा-गोष्ठी की कोई बेसब्री मुझे उनमें नज़र नहीं आई. बस अपने काम से काम. आयोजन स्थल पर भी नारायणभाई प्रतिदिन ठीक पाँच बजे पहुँच जाते और आधे घंटे बाद कथा की शुरूआत कर देते. धाराप्रवाह बोलते पूरे ढ़ाई घंटे. कोई संदर्भ ग्रंथ आदि नहीं, हाँ एक साधारण की नोटबुक में कुछ नोट्स ज़रूर रहते उनकी टेबल पर.सुनी हुई और पढ़ी हुई बापू कथा करने वाले और बापू से सर्वोदय भाव की ताब में रहने वाले देसाई परिवार के सदस्य द्वारा की जाने वाली कथा का अंतर क्या होता है यह तो बापू-कथा में बैठ कर ही जाना जा सकता है. गाँधी भावधारा के अनुगामी नारायणभाई नियमित रूप से सूत कातते हैं.और उनका पोर्टेबल चरखा हमेशा उनके साथ रहता है. बापू कथा का विशेष आकर्षण होता है गाँधीजी के प्रिय भजनों का सस्वर गायन. इन पदों से कथा में रंजकता भी आती है और कथानक को भी गति मिलती है. नारायणभाई का आग्रह था कि स्थानीय कलाकार ही इसे गाएँ. पाँच दिन कहाँ निकल गए , मालूम ही नहीं पड़ा. विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि गाँधी-दर्शन और जीवन को इतने रोचक तरीक़े से समझाने वाला बेजोड़ टीकाकार नारायणभाई के अलावा देश में दूसरा नहीं है.

कथा जिस दिन समाप्त हुई,नारायण भाई उसी दिन रात को रेल से अहमदाबाद रवाना हो गए. ऐसा नहीं कि स्थानीय आयोजकों के बीच बैठकर अपनी प्रशंसा सुने जा रहे हों या पूछ रहें कि क्यों भाई कैसा रहा मजमा. मुझे रामकथा के विश्व-प्रसिध्द कथाकार संत श्री मोरारी बापू का ध्यान हो आ गया.वे भी अपनी कथा समाप्त होने के दिन ही दूसरे शहर रवाना हो जाते हैं.शायद इसमें यह् बात कथाकार के मन में रहती होगी कि कथा का प्रभाव मेल-मुलाक़ातों में नष्ट न हो और उस वातावरण की स्मति की जुगाली बनी रहे. नारायणभाई को इस कथा में सबसे आनंदित मैंने तब देखा जब सिख और बोहरा समाज के भाईयों द्वारा उन्हें सिरोपाव भेंट किया गया और पारम्परिक बोहरा टोपी भी पहनाई गई.हाँ इन्दौर प्रवास के दौरान मेरे सुझाव के तहत आयोजक उन्हें शहर के जेल में क़ैदियों से मिलवाने भी ले गए जिसे नारायणभाई न केवल सराहा बल्कि भोजन भी वहीं ग्रहण किया.

अस्सी के पार के नारायणभाई देसाई हमारे देश में बापू कथा के एकमात्र प्रवक्ता हैं.वैसा ही जीवन जीते हैं.गाँधी दर्शन और चिंतन ही उनके जीवन का एकमात्र ग्लैमर है. सादगी की बात करना और वैसा जीवनयापन करना कितना सहज है,नारायणभाई को देख-समझकर जाना जा सकता है. गाँधी विचार कभी मर नहीं सकता क्योंकि वह सर्वव्यापी,सर्वकालिक और समदर्शी है.गाँधीवादी नारायणभाई देसाई जब तक यह कथा बाँचते रहेंगे इस बात की पुष्टि भी होती रहेगी.

मेरे लिये पूज्य नारायणभाई को जानना और उनके निकट रह कर बापू-कथा का श्रवण करना जीवन की एक अनमोल निधि है.
सच कहूँ उनसे मिल कर लगा बापू से मिल लिया.....

Sunday, March 29, 2009

चिट्ठी का जवाब तत्काल से पहले देने वाले बालकवि बैरागी.


वैसे उनसे कम ही मिलना होता है क्योंकि वे ठहरे यायावर-कवि.कभी यहाँ कभी वहाँ.वे मेरे मालवा के हैं और मेरे घर के बुज़ुर्ग लगते हैं.सरस्वती हमेशा से उन पर मेहरबान रही है. वे हैं देश के जाने माने कवि श्री बालकवि बैरागी. हम उन्हें प्यार से दादा बालकविजी कहते हैं और मैं तो उन्हें काका साब कहता हूँ.एक पोस्ट में दादा पर लिखना टेड़ी खीर है.सो मुख़्तसर में ही बात कहना चाहूँगा.

दादा के बारे में ख़ास बात यह है कि उनके जैसा पत्र-व्यवहार करने वाला व्यक्ति मैंने अपने जीवन में नहीं देखा. मैं सालों तक उनसे चिट्ठी-पत्री के ज़रिये ही सम्पर्क में बना रहा. हालाँकि वे मेरे कवि पिता श्री नरहरि पटेल के युवा दिनों के अनन्य मित्र रहे हैं लेकिन मेरा उनसे सम्पर्क अपनी फ़ितरत से ही बना. और इस फ़ितरत का नाम चिट्ठी लिखना है. मुझे भी ख़तोकिताबत में मज़ा आता है और दादा तो सो समझिये चिट्ठी लिखनेवालों के आराध्य हैं. वे देर रात कविता पढ्कर यात्रा करें,संसद के सत्र से थक कर लौटे हों,अपने संसदीय क्षेत्र के लोगों से मेल-मुलाक़ात में मसरूफ़ रहे हों या परिवार की किसी ज़िम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हों वे आपकी चिट्ठी बाँचने और फ़िर उसका तत्काल जवाब देने में ज़रा भी देर नहीं करते.आप यक़ीन करें लेकिन यह सच है कि जिन दिनों दादा संसद सदस्य के रूप में दिल्ली में बसे थे तब सप्ताहांत में एक व्यक्ति ख़ासतौर पर दादा के नाम आई चिट्ठियों का बोरा लेकर दिल्ली पहुँचता था.

वे हाथ से ही पत्र लिखते हैं,उनका सुलेख इतना सुन्दर है कि काग़ज़ पर उनके हरूफ़ मोती जैसे दमकते हैं.बरसों से अंतर्देशीय पत्र में दीपावली शुभकामनास्वरूप एक नई कविता अपने परिजनों,काव्यप्रेमियों और कवि-साहित्यकार मित्रों को लिखते रहे हैं.मज़ा ये कि हर बार कविता का उन्वान दीया ही होता है और कविता या गीत का कोण सर्वथा नया होता है.वे खादी ही पहनते हैं और ज़िन्दगी की तमाम क़ामयाबियों के बावजूद उन्होंने अपनी पारम्परिक वेषभूषा धोती-कुर्ते को ही अपना स्थायी ड्रेसकोड या परिधान बना रखता है. कम लोगों को ये बात मालूम है कि आज श्रीमती सोनिया गाँधी की हिन्दी में जो थोड़ी बहुत भी रवानी सुनाई देती है उसमें दादा बालकविजी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है.

डायरी लिखने के मामले में भी वे अत्यंत नियमित रहे हैं और छोटी से छोटी बात को अपनी डायरी में दर्ज़ करना नहीं भूलते यथा आज सुबह जल्दी उठा लेकिन योगाभ्यास नहीं किया या आज डॉ.वैदिक (पत्रकार श्री वेदप्रताप वैदिक)आए थे और मेरे लिये कुर्ते का नया कपड़ा लाए.भोपाल के दुष्यंतकुमार संग्रहालय ने बालकवि की डायरी नाम से उनकी डायरी को प्रकाशित भी किया है. यदि उसके पन्ने पलटें तो पाएंगे कि उसमें बहुत मामूली बातें नोट की गईं हैं लेकिन बड़ी बात ये है कि नियमपूर्वक लिखीं गईं हैं.आप हम जानते ही हैं कि किसी बड़ी घटना को डायरी में लिखेंगे ऐसा सोच कर कितने बरसों तक हमारी डायरिया कोरी की कोरी या नई नकोरी ही रह जाती हैं.

दादा बालकविजी को विचलित देखना शायद ही किसी को नसीब हुआ हो. हाँ वे अपने माता-पिता की बात कर ज़रूर भावुक हो जाते हैं . (उन्होंने अपने आशियाने का नाम धापूधाम रखा है;उनकी वात्सल्यमयी माँ धापूबाई के नाम) दादा बेसाख़्ता ठहाके के मालिक हैं.सुर उनके गले में फ़बता है. उन्हें आप किसी भी कवि के बात पढ़वा लीजिये , वे अपनी कहन से मंच लूट लेते हैं.मालवी में अपनी काव्य-यात्रा शुरू करने वाले दादा बालकविजी आज माँ हिन्दी के वरेण्य सपूत हैं.उन्होंने बहुत ग़रीबी और बेहाली देखी है. मंगते से मंत्री तक शीर्षक की अपनी आत्मकथा में दादा ने नि:संकोच लिखा है कि मैंने भीख मांग कर अपने जीवन की शुरूआत की. वे डॉ.शिवमंगल सिंह सुमन के प्रति हमेशा आदर से भरे रहते हैं और कहते हैं कि सुमनजी की कृपा से बैरागी कुछ बन पाया. दादा की सबसे बड़ी बात है कि वे अपने गुरूजनों और वरिष्ठों के प्रति हमेशा कृतज्ञ बने रहते हैं.

वे आजकल नीमच में रहते हैं और ग्रामीण परिवेश में ही अपने आप को सबसे ज़्यादा आनंदित पाते हैं.मंच पर कविता पढ़ रहे हों,पत्र का जवाब दे रहे हों,रेशमा शेरा के लिये तू चंदा मैं चांदनी जैसा कालजयी चित्रपट गीत रच रहे हों या संसदीय समिति की बैठक में शिरक़त कर रहें हों वे अपना मालवी ठाठ नहीं छोड़ते.पिचहत्तर पार के दादा बेतहाशा यात्राएं करते हैं,सड़क से,हवाई जहाज़ से,रेल से लेकिन उनके कंठ में एक खाँटी इंसान हमेशा ज़िन्दा रहता है.

एक मुलाक़ात की पहली पोस्ट दादा बालकवि बैरागी के नाम कर मैं ही उपकृत महसूस कर रहा हूँ...मुलाक़ातें जारी रहेंगी.

हाँ यदि आप मेरी बात की पुष्टि करना चाहें तो लिख डाले एक चिट्ठी दादा के नाम...पता नोट करें
श्री बालकवि बैरागी
धापूधाम,169,डॉ.पुखराज वर्मा मार्ग,नीमच-458551