Friday, April 24, 2009

अशोक चक्रधर ; शब्द का चितेरा;कविता का दिव्य-स्वर


अभी पिछले हफ़्ते ही की बात है कि हिन्दी कविता के नामचीन हस्ताक्षर अशोक चक्रधर को अपने नगर न्योतने का मौक़ा मिला. सुनता तो उन्हें अस्सी के दशक की शुरूआत से ही आया था और एक दो अवसरों पर मिला भी लेकिन चूँकि इस बार मेज़बान का हक़ अदा करना था सो नज़दीक़ी कुछ ज़्यादा रही. सच कहूँ अशोक चक्रधर एक मंचीय हास्य कवि से कहीं ऊपर की शख़्सियत हैं.जिस तरह का जीवन वे जीते हैं उसमें क़ामयाबी,पैसा,शोहरत और प्रचार बड़ी मामूली चीज़ें हैं.कारण यह कि अशोकजी ने जीवन के यथार्थ को भोगा है और बहुत संघर्ष कर वे आज इस मुकाम तक पहुँचे हैं. वाणी का विलास देखना हो अशोक चक्रधर से मिलिये,कविता का शिल्प देखना हो अशोक चक्रधर से मिलिये,वाकपटुता देखनी हो तो अशोक चक्रधर से मिलिये,सादगी देखनी हो तो अशोक चक्रधर से मिलिये,सब जानने के बाद भी विद्यार्थी कैसे बना रहा जाता है यह जानना हो तो अशोक चक्रधर से मिलिये, कवि होते हुए प्रबंधकीय कौशल कैसे हासिल करना यह जानना हो तो अशोक चक्रधर से मिलिये,कविता के अलावा चित्रकारी,साहित्य,कहानी,पत्रकारिता,फ़ोटोग्राफ़ी,नृत्य,संगीत,लोक-संगीत,रंगकर्म,प्रसारण,प्राध्यापन की इतर विधाओं के बारे में भी कैसे रूचि रखी जाती है और इन सब का उपयोग अपनी ज़िन्दगी को क़ामयाब बनाने के लिये कैसे किया जाता है ये जानना हो तो अशोक चक्रधर से मिलिये. आप सोच रहे होंगे कि मैंने इतनी बार अशोक चक्रधर का नाम दोहराया क्यों.देखिये मैं हूँ विज्ञापन की दुनिया का आदमी.अपनी स्क्रिप्ट (जिसे इश्तेहार की तकनीकी भाषा में कॉपी कहा जाता है)में जितनी बार अपना ब्राँडनेम शुमार करूंगा,वज़न बढ़ेगा. ये तो मज़ाक़ की बात हो गई,मैं क्या अशोक चक्रधर नाम के ब्राँड को प्रमोट करूंगा. लेकिन हाँ ये ज़रूर कहूँगा कि अशोक चक्रधर निश्चित रूप से एक क़ामयाब ब्राँड हैं.बल्कि वे हमारी माँ हिन्दी के ब्राँड एम्बेसेडर हैं.वे जिस सादी भाषा में बतियाते हैं,कविता लिखते हैं और अपने आप को व्यक्त करते हैं वही सच्ची हिन्दी है. उनके बोलने में अमीर ख़ुसरो सुनाई देते हैं.तुलसी,बिहारी,मीरा,सूर से लेकर काका हाथरसी,गोपाल व्यास और शरद जोशी सुनाई देते हैं.अशोक चक्रधर में हिन्दी कविता बोलती सुनाई देती है.

अशोक चक्रधर की सबसे बड़ी ख़ासियत है उनकी जीवंतता. उसमें समोया हुआ निश्छल ठहाका.निराभिमानी इंसान जो हर वक़्त आपसे बातें करते हुए कविता की एक नई इबारत गढ़ लेता है. मानसिक चैतन्यता और स्मृति ऐसी कमाल की कि आपसे बीस-तीस साल बाद भी मिलें तो कोई संदर्भ तलाश ही लें.वे साठ के पास आते आते भी नये ज़माने की तकनीक से बाख़बर रहते हैं.हिन्दी यूनिकोड के लिये उन्होंने ख़ासी मशक़्कत की है. अशोक चक्रधर इंटरनेट पर एक बड़ी उपस्थिति हैं.वे प्रतिपल अपने को अपडेट रखते हैं.अशोक भाई इस बार नई-नकोरी संस्था मोरपंख के न्योते पर काव्य-पाठ के लिये इन्दौर (22 अप्रैल 2009) आए थे? प्रसंग था श्री श्याम शर्मा द्वारा हिन्दी सुलेख की पुस्तिका तुरंत सीखो;सुन्दर लिखो के विमोचन का. इस बार के इंदौर प्रवास के पहले मैंने अशोक भाई से पिगडम्बर स्थित लता-दीनानाथ मंगेशकर ग्रामोफ़ोन रेकॉर्ड संग्रहालय देखने का आग्रह किया था. कवि-सम्मेलन ख़त्म होने के बाद खाना खाया और सोते सोते लगभग दो बज गए लेकिन अशोक भाई को याद था कि पिगडम्बर चलना है.वे सुबह सात बजे अपनी सहचरी वागेश्वरीजी के साथ होटल की लॉबी में तैयार मिले.मेरे शहर इन्दौर से तक़रीबन बीस किलोमीटर दूर है सुमन चौरसिया स्थापित मंगेशकर संग्रहालय. कार से जब पहुँचे सुमन भाई के ख़ज़ाने से रूबरू हो चक्रधर दम्पत्ति तो अभिभूत हो गए. इन्हीं लोगो ने ले लीन्हा दुपट्टा मेरा को जब फ़िल्म पाक़ीज़ा के अलावा सुमन भाई दीगर कई आवाज़ों में सुनाया तो अशोक भाई वाह वाह कर उठे. राधे ना बोले ना बोले ना बोले रे को लता मंगेशकर की आवाज़ में तो कई बार सुना था वागेश्वरीजी ने लेकिन संगीतकार सी.रामचंद्र की आवाज़ के रेकॉर्ड किये हुए एक प्रायवेट कार्यक्रम का सीडी जब सुमन भाई ने सुनवाया तो हम सबजैसे स्तब्ध से थे. आज जय हो को लेकर चुनाव प्रचार अभियान में ख़ूब शोर मचा हुआ है. सुमन भाई ने चुनाव प्रचार के कई एल.पी रेकॉर्ड अशोक जी को सुनवाए और चौंका दिया .क्या गुज़रे ज़माने में भी संगीतमय प्रचार हुआ करता था.
अपनी बात ख़त्म करूं उसके पहले ये भी कहता चलूँ कि अशोक चक्रधर के कंठ में कविता और शब्द आकर निहाल से हो जाते हैं. मंच पर अपनी बात कहते हुए उन्हें किसी अतिरिक्त पराक्रम की आवश्यकता नहीं होती.वे गुफ़्तगू करते हुए ही आपको ठहाका लगवा दें,कब रूला दें,कब चौका दें और कब वाह लूट लें ; वे जब मंच पर होते हैं तो तनाव तिरोहित हो जाता है और श्रोता के मन का आनंदभाव अपने शीर्ष पर होता है.सुननेवाले और आयोजक के इर्द-गिर्द मौजूद माहौल से वे इतनी सारी बातें पिक-अप कर लेते हैं कि आपके पास चकित होने के अलावा और कोई चारा नहीं होता. श्लील हास्य और उस पर तारी होता अशोक चक्रधर का निश्कपट संवाद...क्या बात है !
ये बताने का मक़सद सिर्फ़ इतना सा कि बीती रात की थकान के बावजूद अशोक चक्रधर ने किसी नये कौतुक को जानने और समझने के लिये समय निकाला. पिगडम्बर के पास ही महू पहुँचे,वागेश्वरीजी को ख़रीदी करवाई और हमारे साथी राजेश खण्डेलवाल के आग्रह पर महू के ख्यात चित्रकार दिव्यकांत द्विवेदी के काम को भी निहारा. विश्व-भर में चर्चा में रहने वाले इन्दौरी नाश्ते के व्यंजन पोहे की फ़रमाइश की और सपत्नीक उसक लुत्फ़ भी उठाया.
अशोक चक्रधर पर एक मुलाक़ात की ये पोस्ट इसलिये लिख गया क्योंकि एक सेलिब्रिटि होते हुए भी इस समर्थ कवि ने अपने भीतर के सामान्य इंसान को ज़िन्दा रखा है. मुझे तक़रीबन हर हफ़्ते किसी न किसी सितारा व्यकित्व से मिलने का अवसर आता ही रहता है लेकिन बिरले ही होते हैं जो ज़मीन से कटते नहीं. अशोक चक्रधर नामवर होते हुए भी सरल-सहज हैं और ऐसा बने रहने में आनंदित रहते हैं.उनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है.समझा सकता है . मैने भी सीखा..आपको मौक़ा मिले तो मत चूकियेगा;
अशोक चक्रधर परिवेश,परम्परा और प्रगति के सजग पहरूए हैं

Wednesday, April 8, 2009

सुरयोगी पं.कुमार गंधर्व : एक अविस्मरणीय प्रसंग.


मालवा की बात करें तो रूपमती-बाजबहादुर की प्रेमगाथा से पगे मांडू,महाकालेश्वर,राजा भर्तहरी,महर्षि सांदिपनी,कविवर डॉ.शिवमंगल सिंह सुमन और मोक्षदायिनी सलिला शिप्रा की नगरी उज्जैन,लोकमाता अहिल्या बाई होलकर,अंतरराष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन और तान सम्राट उस्ताद अमीर ख़ा साहब के नगर इन्दौर के बाद सबसे ज़्यादा और शिद्दत से याद आते हैं देवास को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले सुरयोगी पं.कुमार गंधर्व याद आते हैं.आज यानी 8 अप्रैल को कुमारजी का जन्म दिन है.

ग्वालियर घराने की गायकी को आत्मसात करने वाले पं.कुमार गंधर्व एक विलक्षण स्वर साधक ही नहीं अदभुत प्रयोगधर्मी इंसान भी थे. कहाँ धारवाड़(कर्नाटक) में पैदा हुए,मुंबई में पं.बी.आर.देवधर से तालीम लेने आए और कहाँ मालवा के छोटे से क़स्बे देवास में आकर बसे. कुमारजी के हिस्से में सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने मालवा की लोकधुनों को लेकर गंभीर शोध एक चिंतन किया.ऐसी लोक धुनें जिनमें पूरा मालवी जन-जीवन समोया रह्ता आया है , कुमारजी ने अपनी सांगीतिक सोच से तराशा और उसे अविस्मरणीय अंदाज़ में गाया भी.उनका गीत-वर्षा एलबम तो संगीत की दुनिया के लिये एक दस्तावेज़ है.कबीर के निरगुणी पदों को उन्होंने एक नई-नकोरी रंगत दी. सूर,तुलसी और मीरा के भक्ति पदों का अपनी आवाज़ से कायाकल्प किया. हाँ यह भी जोड़ना चाहूँगा कि गायन के दौरान कुमारजी मे पोशीदा अदाकार भी बरबस की बाहर आ जाता था और श्रोता को रूबरू करवाता था एक रूहानी तबियत.


वे हमेशा से नयेपन के पक्षधर रहे और मानते रहे कि घरानों के होने से किसी कला का विकास नहीं होता. कुमारजी को तक़रीबन चार प्रस्तुतियों में नज़दीक से देखने –सुनने का मौक़ा मिला.मैंने उनमें स्पंदित एक अवधूत के दर्शन ही किये. वे सादा तबियत इंसान थे और मन के वैभव में यक़ीन करते थे. उनमें भारतीय शास्त्रीय संगीत की ऐसी विरासत हर लम्हा मौजूद रहती थी जो उन्हें दीगर कलाकारों से अलहदा बनाती थी. अस्सी के दशक के बीच में मुझे मध्य-प्रदेश के संस्कृति विभाग के आयोजन उत्सव में कुमारजी के गायन कार्यक्रम का सूत्र-संचालन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ था. ग्रीन रूम में जब मैं उनसे मिलने पहुँचा तो वे तानपुरे की जोड़ी को ट्यून करने में नि:मग्न थे. वातावरण इतना अनुशासित और तन्मय था कि मैं उनसे यह पूछना ही भूल गया कि आज वे अपने गायन का आरंभ किस राग से करने वाले हैं.

कुमारजी से जुड़ा एक वाक़या मुझे बहुत छूता है. जिन दिनों धारावाहिक रामायण अपनी लोकप्रियता के शीर्ष पर था उन दिनों और ऐन इस धारावाहिक के प्रसारण के समय पर ही किसी आयोजक नें कुमारजी का गायन मुम्बई में रख लिया. सुनने वालों में कुमारजी के तीन सखा और मराठी के जाने माने साहित्यकार पु.ल.देशपांडे(जिन्हें आत्मीयता से पुल भी संबोधित किया जाता है)गायक वसंतराव देशपाण्डे,कुमार जी के शिष्य पं.पढरीनाथ कोल्हापुरे (सिने तारिका पद्मिनी कोल्हापुरे के पिता)भी मौजूद थे. मुंबई में कुमारजी को सुनने चार सौ पाँच सौ श्रोता इकट्ठा होना मामूली बाते थी. रामायण के प्रसारण के समय (सुबह नौ-साढ़े नौ) आयोजक ने कुमारजी के कार्यक्रम को आयोजित करने का जोखिम तो उठा ही लिया था. ख़ैर साहब इस प्रात:कालीन सभा में नियत समय पर अस्सी-नब्बे प्रतिबध्द श्रोता आ गए. तीनों कुमार मित्र श्रोताओं की उपस्थिति को लेकर थोड़े चिंतित हुए. कुमारजी ने सुबह का राग तोड़ी गाया. ये मित्र सोचकर अचंभित कि कुमारजी के गायन में अमूमन सुनाई देने वाले फ़ोर्स और तन्मयता से कहीं अधिक सँवरा हुआ था उस दिन का गायन..गायन पर कहीं इस बात का प्रभाव नहीं कि सुनने वालों की संख्या कितनी है. कार्यक्रम समाप्त हुआ ;सभी मित्र कुमारजी से मिलने मंच पर पहुँचे. पुल बोले कुमार (वे तू-तुकारे से ही एक दूसरे को संबोधित करते थे) आज तो तूने कमाल कर दिया. सुनने वाले इतने कम फ़िर भी तेरी गायकी बेजोड़,विलक्षण,अप्रतिम.
ऐसा कैसे हुआ रे कुमार ? कुमारजी ने जो जवाब दिया वह शायद उन जैसा एक महान कलाकार ही दे सकता था.
कुमारजी बोले....गाने बैठना तो बाहर क्या देखना ...गाना यानी अपने भीतर देखना.

ज़माना बदलेगा,संस्कार भी शायद बदलेंगे और लोगों का सोच भी; लेकिन कुमार गंधर्व की गायकी का जादू अजर-अमर रहेगा.

Friday, April 3, 2009

फ़िराक़ की शायरी का चलता फ़िरता एनसाइक्लोपीडिया


ज़िन्दगी में कई मुलाक़ातें इतनी अनायास होती है कि जब तक आप उस शख़्स को जानें उसे पहचानें और उसके कुछ नज़दीक आएं,समय अपना खेल खेल जाता है. आज एक मुलाक़ात पर जिनकी बात कर रहा हूँ वे भी कुछ ऐसे ही मिले और बस चले गए.इतनी दूर जहाँ से कोई वापस नहीं आता. गोवर्धन भाई था उनका नाम.तख़ल्लुस था यक्ताँ...गोरधन भाई यक्ताँ... गुजराती ज़ुबान,नाटा क़द और चमकती,चपल आँखें,जैसे हर लम्हा कुछ पढ़ कर व्यक्त कर देने को बेसब्र हों.

गोवर्धन भाई जिन्हें गोरधन भाई कहना ज़्यादा आत्मीय लगता था , अज़ीम शायर जनाब फ़िराक गोरखपुरी साहब के ज़बरदस्त फैन थे। फ़िराक़ साहब का दीवान उन्हें ज़ुबानी याद था.उर्दू क्लासिकी शायरी की तफ़सील आप कभी भी उनसे पूछ लीजिये,गोरधन भाई हाज़िर.उन्हें किसी भी उन्वान पर एक से ज़्यादा शे’र तत्काल याद हो आते थे .रोज़ी रोटी चलाने के लिये मेरे शहर में उनकी एक चप्पल की दुकान थी जहाँ चप्पलें कम बिकतीं , शायरी ज़्यादा हुआ करती. गोरधन भाई की दुकान यानी शायरी और शायर. उनकी दुकान एक तरह से मेरे शहर के तमाम शायरों का पसंदीदा ठिया हुआ करता था. मजमा कुछ यूँ जमता कि छोटा-मोटा मुशायरा उस दुकान पर मंसूब हो जाना बड़ी मामूली बात थी.

गोरधन भाई कोई वाहन चलाना नहीं जानते थे सो कुछ बरसों बाद जब उनकी दुकान बंद हो गई तो वे अपने घर में तक़रीबन क़ैद से हो गए. जब बच्चों में से किसी को वक़्त मिलता स्कूटर पर ले जाता. इस तरह से आखिरी कुछ बरसों में गोरधन भाई शेरो-शायरी की नशिस्तों से ग़ैर-हाज़िर रहने लगे.

उन्हें ज़माना कभी भी नामी शायरों की जमात में शुमार नहीं करेगा लेकिन जब जब भी उर्दू से बेइंतहा मुहब्बत करने वालों की फ़ेहरिस्त बनाई जाएगी, गोरधन भाई का नाम उसमें ज़रूर होगा. शायरी उनके लिये एक तरह से ऑक्सीजन का काम करती थी. ज़ालिम मौत ने जिस दिन गोरधन भाई की ड्यू डेट तय की उस दिन उन्हें साँस लेने में ख़ासी तकलीफ़ हो रही थी और लेटा नहीं जा रहा था. नाक और हाथ में नलियाँ लगीं हुईं थी और जनाब डॉक्टर को फ़िराक़ का शे’र सुना रहे थे...आहिस्ता...आहिस्ता.

गोरधन भाई उर्दू या हिन्दी में लिख नहीं पाते थे. उनकी डायरी मे शे’र गुजराती में लिखे होते थी. तलफ़्फ़ुज़ ऐसा कमाल का कि उर्दू पढ़ा-लिखा आदमी भी उनके उच्चारण के सामने पानी भरे. अपनी शायरी सुनाने में वे बहुत कम दिलचस्पी लेते थे. एक तरह का वीतराग था उनमें अपनी बात कहने के लिये. शुरू शुरू में मुशायरों के मेज़बान गोरधन भाई को शायरों की पंक्ति में बिठाने में एक तरह की हीन भावना से ग्रसित थे.लेकिन बाद में जब वे गोरधन भाई के हुनर से वाकिफ़ हो गए तो उन्हें अपनी ग़लती का अहसास हुआ.
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गोरधन भाई की पैदाइश हैदराबाद सिन्ध (अब पाकिस्तान में) की थी. चमड़े का पुश्तैनी कारोबार था. विभाजन के बाद परिवार बडौदा चला आया और वहाँ किशोर गोरधन भाई उर्दू शायरी के जानकारों के बीच उठने-बैठने लगे और ज़िन्दगी भर के लिये शायरी के दीवाने बन गए.

बडौदा के बाद गोरधन भाई का परिवार इन्दौर आकर बस गया और उन्होंने अपने परिवार की रोज़ी-रोटी के लिये अपना पुश्तैनी कारोबार जारी रखा. चप्पलें ऐसी बनाते कि कुछ ख़ास लोग उन्हीं की दुकान से बरसों तक ग्राहक बने रहे.इन्दौर के शायरों में जनाब शादाँ साहब उनके जिगरी थे. ये साथ बरसों रहा. जब अनायास शादाँ साहब गुज़र गए तो उनके जनाज़े का साथ चल रहे गोरधन भाई को बिलखता देख लोग समझे कि ये मरहूम शायर का कोई रिश्तेदार है. अपने दोस्त की मय्यत में आँसू बहाते गोरधन भाई ने शादाँ साहब के लिये ये शेर कहा था...

मुझसे पहले ही मेरा दोस्त गया मुल्के अदम
ये भी दिन आके रहेगा मुझे मालूम न था।


फ़िराक़ गोरधन भाई के लिये पहली और अंतिम पसंद थे,. फ़िराक़ उन्हें इस तरह से रटे हुए थे जैसे किसी शायर को अपनी शायरी याद रहती है. फ़िराक़ के न जाने कितने शे’र याद थे , गिनती नहीं लगाई जा सकती.एक तरह से फ़िराक़ उनकी कमज़ोरी थे. आप फ़िराक़ की बात शुरू कर दीजिये, गोरधन भाई सब काम छोड़ कर आपको अपने महबूब शायर का क़लाम सुनाने लग जाएंगे. एक तरह से वे फ़िराक़ का जीता जागता एनसाइक्लोपीडिया थे. उर्दू शायरी में जो कुछ दर्शन या सूफ़ियाना तबियत का था उन्हें कंठस्थ था. ख़ुद उनकी शायरी में इंसानियत के रंग जबमगाते थे , ये रहे उनके दो शे’र

किसी लंगड़े से कहना दौड़ के परबत पे चढ़ने को
यक़ीनन ये ख़ुदा की शान में अपमान जैसा है

वो बूढ़ा साँप जिससे कैंचुली छोड़ी नहीं जाती
जवाँ साँपों को नंगा,बेअदब,बेशर्म कहना है


उनकी ज़िन्दगी का दूसरा प्यार था आध्यात्मिकता.वे ओशो साहित्य के परम प्रेमी थे. इसके अलावा जन्म-पत्रिका देखने में भी उन्हें महारथ हासिल थी. नब्बे के दशक में मैं व्यक्तिगत रूप से अपने कारोबर के एक मुश्किल मोड़ से गुज़र रहा था. एक दिन गोरधन बाई मेरे दफ़्तर प्रकट हुए , उन्होंने मुझसे मेरी जन्म तिथि पूछी, एक काग़ज़ लिया और कुछ सोच कर बोले संजय भाई...फ़लाँ तारीख़ के बाद आपकी सारी परेशानी दूर हो जाएगी. उनकी गणना सटीक थी.वैसा ही हुआ.

मुशायरों में वे कभी भी अपनी उस ग़ज़ल को दोहराते नहीं थे जिसे वे पिछले मुशायरे में पढ़ चुके होते. उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर भी बेमिसाल था. बतकही के तो वे उस्ताद थे. किसी विषय पर यदि वे बातचीत के मूड में आ जाते तो मालूम ही नहीं पड़ता था कि कितना वक़्त उनसे बात करते हुए गुज़र गया.यूँ इन्दौर में गोरधन भाई की इज़्ज़त करने वालों की तादात कुछ कम नहीं थी. फ़िराक़ के प्रति उनकी दीवानगी और ज्ञान को कई लोग तस्लीम करते थे और वे सब फ़िराक़ साहब के इंतक़ाल पर अपना अफ़सोस ज़ाहिर करने गोरधन भाई के घर पहुँचे.मुझे लगता है शायरी के मुरीदों का यह आदर फ़िराक़ साहब और गोरधन भाई दोनो के प्रति था.

दु:ख की बात यह है कि सौ –दो सौ ग़ज़ल कह चुके गोरधन भाई का कोई मजमुआ (संकलन) ज़माने के सामने आ न सका. बुध्दिजीवियों या अदब की दुनिया में दुकानदारी चलाने वाले लोग सादा तबियत और नेक इंसान गोरधन भाई को कभी वह इज़्ज़त न दे सके जिसके वे हक़दार थे. कई युवा शायरों को उन्होंने बतियाते हुए शायरी का फ़न सिखा दिया. कुर्ता पजामा और साधारण सी चप्पल गोरधन भाई का स्थायी पहनावा था और ज़िन्दादिली उनका स्वभाव. आर्थिक रूप से वे कभी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं रहे; लेकिन उनका ठहाका बादशाही होता था. गोरधन भाई के जाने से इन्दौर की शायरी की फ़िज़ाँ से ऐसा एक सदाबहार दरख़्त चला गया जिसकी छाँह में सुक़ून था, इत्मीनान था, ख़ुलूस था,गोरधन भाई यक्ताँ के जाने से शायरी का एक ख़ुशबूदार किताब गुम हो गई. अपने बारे में क्या ख़ूब कह गए गोरधन भाई

वक़्त से पहले अगर यक्ताँ मर गया
गर्दिशें दौराँ बहुत पछताएगी


गोरधन भाई किस बलन के शायर ये बताने के लिये
मुलाहिज़ा फ़रमाएँ उनकी ये ग़ज़ल…।


ख़ौफ़ के एहसास के शेरो सुख़न तक ले चलो
या अदब को हौसले की अंजुमन तक ले चलो

रोशनी तुमको न देता हो दीया घर का अगर
आके बाहर ख़ुद को सूरज की किरन तक ले चलो


जिनको सब बेहतर नज़र आने लगे परदेस में
उन भरम पाले हुओं को अब वतन तक ले चलो

दर्स जो इंसानियत का सबको दे उस इश्क़ को
सोज़े दिल कहते हैं, जिसको उस जलन तक ले चलो

वो हिरन असली है या नकली पता चल जायेगा
आज की सीता को "यक्ताँ' उस हिरन तक ले चलो।