Friday, April 3, 2009
फ़िराक़ की शायरी का चलता फ़िरता एनसाइक्लोपीडिया
ज़िन्दगी में कई मुलाक़ातें इतनी अनायास होती है कि जब तक आप उस शख़्स को जानें उसे पहचानें और उसके कुछ नज़दीक आएं,समय अपना खेल खेल जाता है. आज एक मुलाक़ात पर जिनकी बात कर रहा हूँ वे भी कुछ ऐसे ही मिले और बस चले गए.इतनी दूर जहाँ से कोई वापस नहीं आता. गोवर्धन भाई था उनका नाम.तख़ल्लुस था यक्ताँ...गोरधन भाई यक्ताँ... गुजराती ज़ुबान,नाटा क़द और चमकती,चपल आँखें,जैसे हर लम्हा कुछ पढ़ कर व्यक्त कर देने को बेसब्र हों.
गोवर्धन भाई जिन्हें गोरधन भाई कहना ज़्यादा आत्मीय लगता था , अज़ीम शायर जनाब फ़िराक गोरखपुरी साहब के ज़बरदस्त फैन थे। फ़िराक़ साहब का दीवान उन्हें ज़ुबानी याद था.उर्दू क्लासिकी शायरी की तफ़सील आप कभी भी उनसे पूछ लीजिये,गोरधन भाई हाज़िर.उन्हें किसी भी उन्वान पर एक से ज़्यादा शे’र तत्काल याद हो आते थे .रोज़ी रोटी चलाने के लिये मेरे शहर में उनकी एक चप्पल की दुकान थी जहाँ चप्पलें कम बिकतीं , शायरी ज़्यादा हुआ करती. गोरधन भाई की दुकान यानी शायरी और शायर. उनकी दुकान एक तरह से मेरे शहर के तमाम शायरों का पसंदीदा ठिया हुआ करता था. मजमा कुछ यूँ जमता कि छोटा-मोटा मुशायरा उस दुकान पर मंसूब हो जाना बड़ी मामूली बात थी.
गोरधन भाई कोई वाहन चलाना नहीं जानते थे सो कुछ बरसों बाद जब उनकी दुकान बंद हो गई तो वे अपने घर में तक़रीबन क़ैद से हो गए. जब बच्चों में से किसी को वक़्त मिलता स्कूटर पर ले जाता. इस तरह से आखिरी कुछ बरसों में गोरधन भाई शेरो-शायरी की नशिस्तों से ग़ैर-हाज़िर रहने लगे.
उन्हें ज़माना कभी भी नामी शायरों की जमात में शुमार नहीं करेगा लेकिन जब जब भी उर्दू से बेइंतहा मुहब्बत करने वालों की फ़ेहरिस्त बनाई जाएगी, गोरधन भाई का नाम उसमें ज़रूर होगा. शायरी उनके लिये एक तरह से ऑक्सीजन का काम करती थी. ज़ालिम मौत ने जिस दिन गोरधन भाई की ड्यू डेट तय की उस दिन उन्हें साँस लेने में ख़ासी तकलीफ़ हो रही थी और लेटा नहीं जा रहा था. नाक और हाथ में नलियाँ लगीं हुईं थी और जनाब डॉक्टर को फ़िराक़ का शे’र सुना रहे थे...आहिस्ता...आहिस्ता.
गोरधन भाई उर्दू या हिन्दी में लिख नहीं पाते थे. उनकी डायरी मे शे’र गुजराती में लिखे होते थी. तलफ़्फ़ुज़ ऐसा कमाल का कि उर्दू पढ़ा-लिखा आदमी भी उनके उच्चारण के सामने पानी भरे. अपनी शायरी सुनाने में वे बहुत कम दिलचस्पी लेते थे. एक तरह का वीतराग था उनमें अपनी बात कहने के लिये. शुरू शुरू में मुशायरों के मेज़बान गोरधन भाई को शायरों की पंक्ति में बिठाने में एक तरह की हीन भावना से ग्रसित थे.लेकिन बाद में जब वे गोरधन भाई के हुनर से वाकिफ़ हो गए तो उन्हें अपनी ग़लती का अहसास हुआ.
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गोरधन भाई की पैदाइश हैदराबाद सिन्ध (अब पाकिस्तान में) की थी. चमड़े का पुश्तैनी कारोबार था. विभाजन के बाद परिवार बडौदा चला आया और वहाँ किशोर गोरधन भाई उर्दू शायरी के जानकारों के बीच उठने-बैठने लगे और ज़िन्दगी भर के लिये शायरी के दीवाने बन गए.
बडौदा के बाद गोरधन भाई का परिवार इन्दौर आकर बस गया और उन्होंने अपने परिवार की रोज़ी-रोटी के लिये अपना पुश्तैनी कारोबार जारी रखा. चप्पलें ऐसी बनाते कि कुछ ख़ास लोग उन्हीं की दुकान से बरसों तक ग्राहक बने रहे.इन्दौर के शायरों में जनाब शादाँ साहब उनके जिगरी थे. ये साथ बरसों रहा. जब अनायास शादाँ साहब गुज़र गए तो उनके जनाज़े का साथ चल रहे गोरधन भाई को बिलखता देख लोग समझे कि ये मरहूम शायर का कोई रिश्तेदार है. अपने दोस्त की मय्यत में आँसू बहाते गोरधन भाई ने शादाँ साहब के लिये ये शेर कहा था...
मुझसे पहले ही मेरा दोस्त गया मुल्के अदम
ये भी दिन आके रहेगा मुझे मालूम न था।
फ़िराक़ गोरधन भाई के लिये पहली और अंतिम पसंद थे,. फ़िराक़ उन्हें इस तरह से रटे हुए थे जैसे किसी शायर को अपनी शायरी याद रहती है. फ़िराक़ के न जाने कितने शे’र याद थे , गिनती नहीं लगाई जा सकती.एक तरह से फ़िराक़ उनकी कमज़ोरी थे. आप फ़िराक़ की बात शुरू कर दीजिये, गोरधन भाई सब काम छोड़ कर आपको अपने महबूब शायर का क़लाम सुनाने लग जाएंगे. एक तरह से वे फ़िराक़ का जीता जागता एनसाइक्लोपीडिया थे. उर्दू शायरी में जो कुछ दर्शन या सूफ़ियाना तबियत का था उन्हें कंठस्थ था. ख़ुद उनकी शायरी में इंसानियत के रंग जबमगाते थे , ये रहे उनके दो शे’र
किसी लंगड़े से कहना दौड़ के परबत पे चढ़ने को
यक़ीनन ये ख़ुदा की शान में अपमान जैसा है
वो बूढ़ा साँप जिससे कैंचुली छोड़ी नहीं जाती
जवाँ साँपों को नंगा,बेअदब,बेशर्म कहना है
उनकी ज़िन्दगी का दूसरा प्यार था आध्यात्मिकता.वे ओशो साहित्य के परम प्रेमी थे. इसके अलावा जन्म-पत्रिका देखने में भी उन्हें महारथ हासिल थी. नब्बे के दशक में मैं व्यक्तिगत रूप से अपने कारोबर के एक मुश्किल मोड़ से गुज़र रहा था. एक दिन गोरधन बाई मेरे दफ़्तर प्रकट हुए , उन्होंने मुझसे मेरी जन्म तिथि पूछी, एक काग़ज़ लिया और कुछ सोच कर बोले संजय भाई...फ़लाँ तारीख़ के बाद आपकी सारी परेशानी दूर हो जाएगी. उनकी गणना सटीक थी.वैसा ही हुआ.
मुशायरों में वे कभी भी अपनी उस ग़ज़ल को दोहराते नहीं थे जिसे वे पिछले मुशायरे में पढ़ चुके होते. उनका सेंस ऑफ़ ह्यूमर भी बेमिसाल था. बतकही के तो वे उस्ताद थे. किसी विषय पर यदि वे बातचीत के मूड में आ जाते तो मालूम ही नहीं पड़ता था कि कितना वक़्त उनसे बात करते हुए गुज़र गया.यूँ इन्दौर में गोरधन भाई की इज़्ज़त करने वालों की तादात कुछ कम नहीं थी. फ़िराक़ के प्रति उनकी दीवानगी और ज्ञान को कई लोग तस्लीम करते थे और वे सब फ़िराक़ साहब के इंतक़ाल पर अपना अफ़सोस ज़ाहिर करने गोरधन भाई के घर पहुँचे.मुझे लगता है शायरी के मुरीदों का यह आदर फ़िराक़ साहब और गोरधन भाई दोनो के प्रति था.
दु:ख की बात यह है कि सौ –दो सौ ग़ज़ल कह चुके गोरधन भाई का कोई मजमुआ (संकलन) ज़माने के सामने आ न सका. बुध्दिजीवियों या अदब की दुनिया में दुकानदारी चलाने वाले लोग सादा तबियत और नेक इंसान गोरधन भाई को कभी वह इज़्ज़त न दे सके जिसके वे हक़दार थे. कई युवा शायरों को उन्होंने बतियाते हुए शायरी का फ़न सिखा दिया. कुर्ता पजामा और साधारण सी चप्पल गोरधन भाई का स्थायी पहनावा था और ज़िन्दादिली उनका स्वभाव. आर्थिक रूप से वे कभी बहुत अच्छी स्थिति में नहीं रहे; लेकिन उनका ठहाका बादशाही होता था. गोरधन भाई के जाने से इन्दौर की शायरी की फ़िज़ाँ से ऐसा एक सदाबहार दरख़्त चला गया जिसकी छाँह में सुक़ून था, इत्मीनान था, ख़ुलूस था,गोरधन भाई यक्ताँ के जाने से शायरी का एक ख़ुशबूदार किताब गुम हो गई. अपने बारे में क्या ख़ूब कह गए गोरधन भाई
वक़्त से पहले अगर यक्ताँ मर गया
गर्दिशें दौराँ बहुत पछताएगी
गोरधन भाई किस बलन के शायर ये बताने के लिये
मुलाहिज़ा फ़रमाएँ उनकी ये ग़ज़ल…।
ख़ौफ़ के एहसास के शेरो सुख़न तक ले चलो
या अदब को हौसले की अंजुमन तक ले चलो
रोशनी तुमको न देता हो दीया घर का अगर
आके बाहर ख़ुद को सूरज की किरन तक ले चलो
जिनको सब बेहतर नज़र आने लगे परदेस में
उन भरम पाले हुओं को अब वतन तक ले चलो
दर्स जो इंसानियत का सबको दे उस इश्क़ को
सोज़े दिल कहते हैं, जिसको उस जलन तक ले चलो
वो हिरन असली है या नकली पता चल जायेगा
आज की सीता को "यक्ताँ' उस हिरन तक ले चलो।
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बहुत आभार गोरधन भाई यक्ताँ के परिचय के लिए. गज़ल पढ़कर आनन्द आया.
ReplyDeleteसंजय भाईसाहबजी,
ReplyDeleteगोरधन भाईजी के बारे में इस पोस्ट को पढते पढते मन भर आया। उनका न कहीं नाम सुना और न मिले लेकिन इस पोस्ट से ही बहुत कुछ महसूस किया। बस और क्या कहें, आप खुशकिस्मत हैं कि आपको उनसे मिलने और अंतरंग बातचीत करने का मौका मिला।
गोरधन भाई यक्ताँ के बारे मे इतनी जानकारी देने परिचय करवाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ...
ReplyDeleteमहरुम गोरधन भाई यक्ताँ से कितने दीये जले, बुझे और बिछड गये अँधेरोँ मेँ आज फिर से
ReplyDeleteउनकी यादोँ का दिया जलाने का शुक्रिया सँजय भाई
अब वे शायद फीराक सा'ब के सँग शायरी की मौज ले रहे होँगेँ ..
स स्नेह,
- लावण्या
ऐसे दुर्लभ व्यक्तित्व जिंदगी में रंग भर देते है.......
ReplyDeleteमैने पहली बार उनका नाम सुना है. आप ने ऐसे शक्श के बारे मे लिख कर बहुत नेक काम किया है. ये गज़ल कमाल की लिखी है.
ReplyDeleteसंजय जी,
ReplyDeleteमैं इन विचारों की हामी भरुंगा कि अब से पहले मुझे नही पता था गोरधन भाई के बारे में. बहुत नेक काम किया है.
आपका अंदाजे-बयाँ भी क्या कहने.
मुकेश कुमार तिवारी