Wednesday, April 8, 2009
सुरयोगी पं.कुमार गंधर्व : एक अविस्मरणीय प्रसंग.
मालवा की बात करें तो रूपमती-बाजबहादुर की प्रेमगाथा से पगे मांडू,महाकालेश्वर,राजा भर्तहरी,महर्षि सांदिपनी,कविवर डॉ.शिवमंगल सिंह सुमन और मोक्षदायिनी सलिला शिप्रा की नगरी उज्जैन,लोकमाता अहिल्या बाई होलकर,अंतरराष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन और तान सम्राट उस्ताद अमीर ख़ा साहब के नगर इन्दौर के बाद सबसे ज़्यादा और शिद्दत से याद आते हैं देवास को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले सुरयोगी पं.कुमार गंधर्व याद आते हैं.आज यानी 8 अप्रैल को कुमारजी का जन्म दिन है.
ग्वालियर घराने की गायकी को आत्मसात करने वाले पं.कुमार गंधर्व एक विलक्षण स्वर साधक ही नहीं अदभुत प्रयोगधर्मी इंसान भी थे. कहाँ धारवाड़(कर्नाटक) में पैदा हुए,मुंबई में पं.बी.आर.देवधर से तालीम लेने आए और कहाँ मालवा के छोटे से क़स्बे देवास में आकर बसे. कुमारजी के हिस्से में सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने मालवा की लोकधुनों को लेकर गंभीर शोध एक चिंतन किया.ऐसी लोक धुनें जिनमें पूरा मालवी जन-जीवन समोया रह्ता आया है , कुमारजी ने अपनी सांगीतिक सोच से तराशा और उसे अविस्मरणीय अंदाज़ में गाया भी.उनका गीत-वर्षा एलबम तो संगीत की दुनिया के लिये एक दस्तावेज़ है.कबीर के निरगुणी पदों को उन्होंने एक नई-नकोरी रंगत दी. सूर,तुलसी और मीरा के भक्ति पदों का अपनी आवाज़ से कायाकल्प किया. हाँ यह भी जोड़ना चाहूँगा कि गायन के दौरान कुमारजी मे पोशीदा अदाकार भी बरबस की बाहर आ जाता था और श्रोता को रूबरू करवाता था एक रूहानी तबियत.
वे हमेशा से नयेपन के पक्षधर रहे और मानते रहे कि घरानों के होने से किसी कला का विकास नहीं होता. कुमारजी को तक़रीबन चार प्रस्तुतियों में नज़दीक से देखने –सुनने का मौक़ा मिला.मैंने उनमें स्पंदित एक अवधूत के दर्शन ही किये. वे सादा तबियत इंसान थे और मन के वैभव में यक़ीन करते थे. उनमें भारतीय शास्त्रीय संगीत की ऐसी विरासत हर लम्हा मौजूद रहती थी जो उन्हें दीगर कलाकारों से अलहदा बनाती थी. अस्सी के दशक के बीच में मुझे मध्य-प्रदेश के संस्कृति विभाग के आयोजन उत्सव में कुमारजी के गायन कार्यक्रम का सूत्र-संचालन करने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ था. ग्रीन रूम में जब मैं उनसे मिलने पहुँचा तो वे तानपुरे की जोड़ी को ट्यून करने में नि:मग्न थे. वातावरण इतना अनुशासित और तन्मय था कि मैं उनसे यह पूछना ही भूल गया कि आज वे अपने गायन का आरंभ किस राग से करने वाले हैं.
कुमारजी से जुड़ा एक वाक़या मुझे बहुत छूता है. जिन दिनों धारावाहिक रामायण अपनी लोकप्रियता के शीर्ष पर था उन दिनों और ऐन इस धारावाहिक के प्रसारण के समय पर ही किसी आयोजक नें कुमारजी का गायन मुम्बई में रख लिया. सुनने वालों में कुमारजी के तीन सखा और मराठी के जाने माने साहित्यकार पु.ल.देशपांडे(जिन्हें आत्मीयता से पुल भी संबोधित किया जाता है)गायक वसंतराव देशपाण्डे,कुमार जी के शिष्य पं.पढरीनाथ कोल्हापुरे (सिने तारिका पद्मिनी कोल्हापुरे के पिता)भी मौजूद थे. मुंबई में कुमारजी को सुनने चार सौ पाँच सौ श्रोता इकट्ठा होना मामूली बाते थी. रामायण के प्रसारण के समय (सुबह नौ-साढ़े नौ) आयोजक ने कुमारजी के कार्यक्रम को आयोजित करने का जोखिम तो उठा ही लिया था. ख़ैर साहब इस प्रात:कालीन सभा में नियत समय पर अस्सी-नब्बे प्रतिबध्द श्रोता आ गए. तीनों कुमार मित्र श्रोताओं की उपस्थिति को लेकर थोड़े चिंतित हुए. कुमारजी ने सुबह का राग तोड़ी गाया. ये मित्र सोचकर अचंभित कि कुमारजी के गायन में अमूमन सुनाई देने वाले फ़ोर्स और तन्मयता से कहीं अधिक सँवरा हुआ था उस दिन का गायन..गायन पर कहीं इस बात का प्रभाव नहीं कि सुनने वालों की संख्या कितनी है. कार्यक्रम समाप्त हुआ ;सभी मित्र कुमारजी से मिलने मंच पर पहुँचे. पुल बोले कुमार (वे तू-तुकारे से ही एक दूसरे को संबोधित करते थे) आज तो तूने कमाल कर दिया. सुनने वाले इतने कम फ़िर भी तेरी गायकी बेजोड़,विलक्षण,अप्रतिम.
ऐसा कैसे हुआ रे कुमार ? कुमारजी ने जो जवाब दिया वह शायद उन जैसा एक महान कलाकार ही दे सकता था.
कुमारजी बोले....गाने बैठना तो बाहर क्या देखना ...गाना यानी अपने भीतर देखना.
ज़माना बदलेगा,संस्कार भी शायद बदलेंगे और लोगों का सोच भी; लेकिन कुमार गंधर्व की गायकी का जादू अजर-अमर रहेगा.
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ज़माना बदलेगा,संस्कार भी शायद बदलेंगे और लोगों का सोच भी; लेकिन कुमार गंधर्व की गायकी का जादू अजर-अमर रहेगा ... बहुत सटीक कहा।
ReplyDeleteachha hai!
ReplyDeleteiss par hum baatcheet karenge S. bhai
abhi mann thoda udaas hai....APNE NAYEEM SAAB nahin rahe.
awdhesh p. singh
गाना यानी अपने अंदर देखना...
ReplyDeleteखूब कहा है सुर महर्षी नें.
kumar sb. ke baare padkar bahut achcha laga.
ReplyDeleteBahut Khoob
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