Thursday, December 24, 2009
रफ़ी साहब के ड्रायवर अल्ताफ़ भाई की यादें
मोहम्मद रफ़ी साहब 1980 में दुनिया ऐ फ़ानी से रूख़सत हुए. उसके बाद कई लोगों ने उनकी यादों को ताज़ा किया. पिछले दिनो मेरे शहर के शाम के अख़बार प्रभात-किरण के युवा पत्रकार हिदायतउल्लाहख़ान
ने हमारे महबूब गुलूकार रफ़ी साहब के ड्रायवर अल्ताफ़ हुसैन ख़ान से मुलाक़ात की. मुझे लगा ये बड़ी प्यारी सी और भावपूर्ण गुफ़्तगू रफ़ी साहब के जन्मदिन पर ब्लॉग-बिरादरों तक पहुँचना चाहिये. मुलाहिज़ा फ़रमाए और महसूस करें छोटी छोटी बातों का ख़याल रखकर ही कोई बड़ा और महान बनता है,:
अल्ताफ़ हुसैन ख़ान का तआरुफ़ यह है कि ये जनाब, महान गायक मोहम्मद रफ़ी के ड्रायवर रहे हैं। चार साल रफ़ी साहब की एम्पाला दौड़ाई है। अपनी ज़िंदगी के सबसे क़ीमती व़क़्त का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं कि मोहम्मद रफ़ी साहब की क्या बात करें, वो तो इंसान की शक्ल में फ़रिश्ता थे। जिस आदमी की पूरी दुनिया दीवानी थी, वो इतना सादा था कि सादगी भी उससे शरमाती थी। साहब की ज़िंदगी का एक ही उसूल था, किसी को अपना बना लो या किसी के हो जाओ। बीच का रिश्ता रखने में वो बेहद कंजूस थे। जिस मोहब्बत से किसी निर्माता या संगीतकार से मिलते थे, उतनी ही मोहब्बत उनमें उस व़क़्त भी होती जब वे अपने चाहने वालों के बीच होते थे। आम और ख़ास में फ़र्क करना उनकी फ़ितरत में नहीं था, तभी तो उनकी आवाज़ उनके अख़लाक़ से हमेशा दबी रही। मुस्कुराते रहने वाला वो ख़ूबसूरत चेहरा आज भी आँखों में घूमता है।
यादगार रही पहली मुलाकात :
मैं मीनाकुमारी की मर्सिडीज़ चलाया करता था, जो लैफ़्टहैंड ड्राइव थी। कमाल (अमरोही) साहब के पास से मीनाकुमारी चली गईं थीं और मैं ड्रायवर की जगह चौकीदार हो गया था। रफ़ी साहब को लैफ़्टहैंड ड्रायवर की तलाश थी। मुझे उनके साले (जो उनके सेक्रेटरी थे) ज़हीर ने उनसे मिलाया। उस व़क़्त रफ़ी साहब के बच्चे पुणे में पढ़ते थे। उन्होंने मुझे पुणे गाड़ी चलाकर ले जाने को कहा। मैं तैयार था। मेरी ड्रायविंग से रफ़ी साहब बेहद ख़ुश हुए और अपने यहॉं २०० रु. महीने पर रख लिया।
खाना साथ खिलाया :
रास्ते में मैंने साहब को पुणे के एक होटल के बारे में बताया, जहॉं मीनाकुमारी और कमाल साहब अक्सर खाना खाया करते थे। तो रफ़ी साहब ने भी वहीं खाना खाने की ख़्वाइश ज़ाहिर की। मैं गाड़ी पार्किंग में लगाकर उसी में बैठ गया, जैसा मैं पहले किया करता था। तभी ज़हीर भाई मुझे बुलाने आए और बोले- साहब बुला रहे हैं। मुझे देखकर उन्होंने कहा मियॉं तुम्हें भूख नहीं लगती क्या? पास वाली कुर्सी पर बैठाया और कहा कि आज सारे खाने का ऑर्डर तुम ही दोगे। मैं समझ नहीं पा रहा था कि ये सब क्या हो रहा है। उनकी महानता से यह मेरी पहली मुलाक़ात थी। उसके बाद तो हर दिन उने नए क़िरदार से मुलाक़ात होने लगी, जिसमें वो कभी दाता नज़र आते, तो कभी हमदर्द, कभी दोस्त तो कभी भाई।
ड्रायवर को दिलाई टैक्सी :
मुझसे पहले उनके वहॉं सुल्तान ड्रायवर था, जो काफ़ी पुराना था। लैफ़्टहैंड ड्राइव में वो कमज़ोर था, जिसकी वजह से मुझे रखा गया था और उसे अलग कर दिया गया था, लेकिन ऐसे ही नहीं। साहब ने बाक़ायदा उसे ७० हज़ार रुपए की टैक्सी दिलाई थी और कहा था कि रफ़ी के दरवाज़े तेरे लिए २४ घंटे खुले हैं।
झटके से बोलते थे :
रफ़ी साहब पंजाबी थे, इसलिए उनके बोलने का अंदाज़ भी पंजाबी ही था। वो झटके से बोलते थे। ठहर-ठहर कर आराम से बोलना उनकी आदत थी। हम ये सोचा करते थे कि ये बंदा गाते व़क़्त तो तूफ़ान खड़ा कर देता है, लेकिन बोलने में उतना ही सुस्त है। साहब कम लेकिन दमदार बोलते थे। इसी तरह उनका मज़ाक़ भी प्यारा होता था। उन्हें उर्दू अच्छी आती थी और वो गाने की स्क्रिप्ट अपनी डायरी में अपने हाथ से उर्दू में ही लिखा करते थे।
घर में जमती पंगत :
इतवार को छुट्टी हुआ करती थी, इस दिन क़रीबी मिलने वालों के साथ घर के नौकरों को लेकर साहब घर में ही शुरू हो जाते थे। पेटी उनके सामने होती थी। फिर एक-एक करके सबकी फ़रमाइश पूरी की जाती। घर में भी वो उसी अंदाज़ में गाते जैसा स्टूडियो में गाते थे। मैं जिस गाने की फ़रमाइश करता वो उनकी भी पसंद का निकलता था। ख़ासकर बैजू-बावरा के गाने उन्हें बहुत पसंद थे। एक बार तो माली ने लता मंगेशकर के गाने की फ़रमाइश कर डाली, तो साहब ने उसे मायूस नहीं किया और लता के अंदाज़ में गाना सुनाया।
अच्छे मिस्त्री थे :
विदेश से दूसरे सामान के साथ वो हमेशा कुछ औज़ार ज़रूर लाया करते थे। घर में सभी तरह के आधुनिक औज़ार थे। छुट्टी के दिन लुंगी बांधकर वो एकदम मिस्त्री बन जाया करते थे। कभी दरवाज़े-खिड़की सुधारते तो कभी बिजली का काम करते। सेनेटरी का काम भी कर लेते थे। मोटर मैकेनिक भी हो गए थे। सारे काम ख़ुद करने में उन्हें मज़ा आता था। ऐसा लगता था कि जैसे वो काम के लिए व़क़्त की तलाश में ही रहते हों। काम करते व़क़्त वो आम आदमी से भी ज़्यादा आम हो जाते थे। फिर वो गायक न जाने कहॉं चला जाता था, जिसकी शोहरत का डंका था।
चौकड़ी थी :दिलीपकुमार, नौशाद, जॉनी वाकर और रफ़ी साहब की चौकड़ी थी। हर प्रोग्राम में ये साथ दिखाई देते थे। फिर टेनिस क्लब में तो रोज़ मिलते ही थे। साहब को शिकार का शौक नहीं था, जबकि ये तीनों पक्के शिकारी थे।
वो आ रहे हैं आलम-पनाह :
साहब के चाहने वाले और क़रीबी दोस्त उन्हें आलम पनाह कहा करते थे, क्योंकि हमारे साहब को अंदाज़ ही कुछ ऐसा था। बड़े क़रीने के आदमी थे। कहीं भी कार रुकवा कर चाहने वालों से मिल लेते थे। हर ख़त का जवाब ख़ुद लिखते थे। जब हमने आलम-पनाह कहरने की कोशिश की तो मना कर दिया। कहा - मैं रफ़ी ही ठीक हूँ और वह भी मोहम्मद रफ़ी।
मोहर्रम में काम बंद -:साहब मोहर्रम की दस तारीख़ तक गाना नहीं गाते थे। रमज़ान में भी गाना तो बंद नहीं करते थे, लेकिन रिकॉर्डिंग दोपहर से पहले कर लिया करते थे। साहब पक्के मज़हबी थे। नमाज़ के साथ दूसरे अरकान के लिए वो व़क़्त निकाल लेते थे।
नेक ज़िंदगी को सलाम -:मेरी शादी के बारे में जब उन्हें पता चला तो पंद्रह सौ रुपए दिए (१९६५ में ये बड़ी रक़म हुआ करती थी) और स्टेशन तक छोड़ने आए। हर रेकॉर्डिंग में दस रुपए दिया करते थे। कभी कोई उनके दर से ख़ाली हाथ नहीं लौटा। खाने का उन्हें बेहद शौक था। डायबिटिक होने के वजह से खुद तो ज़्यादा नहीं खाते थे, लेकिन खिलाते ख़ूब थे। पान उनकी जान था। शायरी के दीवाने थे। रुबाई में गहरी दिलचस्पी थी, लिख भी लेते थे लेकिन कभी ज़ाहिर नहीं किया। पच्चीस हज़ार रेकॉर्ड उनकी अलमारी में रखे थे। हर गाने की अलग डायरी बनाते थे, जिसमें फ़िल्म सहित सारी जानकारी होती थी और क्या कहें... नेक ज़िंदगी को दिल से सलाम।
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अल्ताफ़ साहब,हिदायतउल्लाह और आपको शुक्रिया ।
ReplyDeleteरफ़ी साहब के आचरण के बारे में सुनकर लगा कि उनकी मिठास यहीं से आई होगी ।
बेहतरीन पेशकश संजय दद्दा. सचमुच दिल को छू लेने वाली.
ReplyDeleteशुक्रिया यहां बांटने के लिए ..
ReplyDeletesanjaybhai salam .. rafiji ki yeh story hamtak puchaneke liyaa.
ReplyDeleteवाह संजय भाई मज़ा आ गया ।
ReplyDeleteवाह दिल खुश कर दिया आपने इस लेख को पढ़वाकर।
ReplyDeleteAre wah ! Ye huee na asli jaankari ...Sanjay bhai, aapka bahut bahut shukriya. Ees Post ke liye.
ReplyDeleteKash ! Rafi Sahab ne jo Latadi ki awaaz mei, Mali ki farmayeesh per jo geet gaya tha, uski Recording
bhee sunne ko mil jatee .to kitna maza aata ...
Asha hai, Nav - varsh aapke liye, pure Parivar ke liye, Khushiyon ke TOHFE leker aaye .......
- aapki Lavanya di ka sneh ashish
शुक्रिया संजय! इस बेहतरीन श्रद्धांजलि के लिये!
ReplyDeleteनमस्कार संजय अंकल !
ReplyDelete24 दिसंबर को गायकी के शहंशाह के जन्मदिन पर आपने माननीय रफ़ी साहब के ड्राइवर साहब जनाब अल्ताफ भाई से जनाब हिदायतुल्लाह खान साहब की गुफ्तगू संगीत चाहने वालों तक पहुँचा कर मानो संगीत के यीशु मसीह के जन्मदिवस पर हम संगीत प्रेमियों को सांता क्लौज़ बनकर रफ़ी साहब के बारे मे अनमोल जानकारी इन शब्द रूपी हीरे मोतियों के समान हम सब पर बरसा दी । अब गायकी के शहंशाह का जन्मदिवस माने या प्रभु यीशु के जन्मदिवस की पूर्व संध्या --- पर इस सुखद संयोग पर हम संगीत के सेवकों के लिये इस से बेहतर तोहफा तो शायद ही और कुछ हो !!!
शुक्रिया आप सभी रफ़ी मुरीदों का और शुक्रिया....उस परवरदिगार का जिसने हमारे कानों को सुरीला बनाने के लिये पण्डित मोहम्मद रफ़ी जैसा सुर-गंधर्व हमारे बीच भेजा.
ReplyDeleteपंडित रफ़ी जैसे सुर गंधर्व की हर याद अनमोल है.
ReplyDeleteआखरी दिनों में रफ़ी जी के पास फ़ियेट हुआ करती थी जो अब भी उनके पुराने बंगले में घुसते ही रखी हुई मिलेगी, जिसमें चाबी भी उसी छल्ली के साथ लगी हुई है.
Hum jaise Pyaason ke liye yah lekh thande pani ka zarna he........rafi sahab ko aur zyada karib mahsoos kiya.......Dhanywaad
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