Sunday, April 24, 2011

पद्मश्री से मैं नहीं हमारी मीठी मालवी नवाज़ी गई है.


 
















म्हें तो गाम-गामड़ा को मनख हूँ दादा.यो दाता कबीर का नाम को जादू हे कि इण सेवकका माथा पे पदमसिरी को तिलक लगई दियो. यो म्हारो नीं, माँ मालवी को मान हे.मालवी को आसरो नी वेतो तो टिपानिया के असो जस नी मिलतो.(मैं तो गाँव का आदमी हूँ भाई.ये  तो दाता कबीर साहब के नाम का जादू है जिसने इस सेवक के माथे पर पद्मश्री का तिलक लगा दिया है.ये (पद्मश्री अलंकरण)मेरा नहीं मेरी बोली मालवी का मान है. मालवी का  आसरा न होता तो इस टिपानिया को ऐसा यश नहीं मिलता.)


ये बात आज अपनी सात दिनी मालवा कबीर यात्रा लेकर निकले मालवी के लाड़ले कबीरपंथी गायक ने ख़ाकसार से  ख़ास बातचीत में कहे . उल्लेखनीय है कि प्रहलादसिंहजी विगत १५ वर्षों से अपने गाँव लूनियाखेड़ी(मक्सी) में प्रतिवर्ष एक कबीर समागम करते हैं.पिछले वर्ष से यह सिलसिला मालवा कबीर यात्रा में तब्दील हो गया. १७ अप्रैल से लुनियाखेड़ी से शुरू हुई मालवा कबीर यात्रा उज्जैन,देवास,शाजापुर,पचोर (राजगढ़) नीमच,पेटलावद होती हुई २४ अप्रैल को इन्दौर पहुँच रही है.इस पूरे जमावड़े में २० से अधिक कलाकारों ने शिरक़त की.

टिपानियाजी ने बताया कि हर जगह कबीर यात्रा को अभूतपूर्व प्रतिसाद मिला. ग़ौरतलब है कि इवेंट मैनेजमेंट के दौर में टिपानियाजी और उनके भोले-सादे कलाकार बस भरकर गाँव दर गाँव अनवरत यात्रा करते रहे.लिंडा हैस जैसी वरिष्ठ अमेरिकन लेखिका भी इस पूरी यात्रा में टिपानियाजी अन्य कलाकारों की कारीगरी का आनंद लेतीं रहीं. कबीर यात्रा के कलाकार खेतों में चल रहे पम्प से नहाते रहें और तरोताज़ा होकर पूरी-पूरी रात कबीरी छाप वाले गीतों से अलख जगाते रहे.लगभग हर जगह टिपानियाजी के प्रति लोगों का असीम लाड़ उमड़ा और सारे कलाकारों को प्रेमपूर्ण मिजवानी मिलती रही.अमेरिका तक अपनी गायकी का जादू फ़ैला चुके इस ज़मीनी कलाकार  का कहना है कि मुझे तो आज भी गाना नहीं आता. चौबीस पच्चीस बरस की उम्र थी और सत्तर का दशक था तब लोकगीतों में उपयोग में लिये जाने वाले तंबूरे के लिये मन में आकर्षण पैदा हुआ,तब गाने का ख़याल तो मन में आया ही नहीं था. देवास ज़िले के लोकगीत गायक चेनाजी को पहली बार गाते सुना और लगा कि इस ओर प्रयास करना चाहिये. पहली बार खेती-किसानी का गीत गाया (खेती करे तो थारे समझ बताऊँ,बलद्या ने दु:ख मती दीजे) और उसी में छुपे मर्म में मिली कबीरी रंग से एक रूहानी  उजास मेरे मन में प्रकट हुआ.

सन अस्सी की शुरूआत में आकाशवाणी इन्दौर में टिपानियाजी का स्वर परीक्षण हुआ तब तंबूरा,खड़ताल और मंजीरा लेकर ही लोकगीत गाते थे टिपानियाजी. बाद में हारमोनियम,वॉयलिन,तबला,ढोलक जैसे वाद्यों के शुमार से लोकगीतो का माधुर्य और बढ़ने लगा. टिपानियाजी आज भी आकाशवाणी इन्दौर का गुणगान करते नहीं अघाते. वे कहते हैं कबीरी गीतों में मालवी की ख़ुशबू और मालवा हाउस का आसरा न होता तो टिपानिया लूनियाखेड़ी में माडसाब बन कर रह जाता.प्रहलादसिंहजी को अमेरिका की शोधार्थी लिंडा हैस,संस्कृतिकर्मी और कवि अशोक वाजपेयी, फ़िल्म निर्मात्री शबनम विरमनी जैसे कबीरप्रेमियों की रहनुमाई ने बहुत हौसला दिया. विनम्र,औलिया तबियत और ज़मीन से जुड़े इस मिट्टी के लाल ने मालवा को पूरी दुनिया में अदभुत मान दिलवाया है.निरगुणी पदों को लेकर की जा रही उनकी कोशिशें पं.कुमार गंधर्व जैसे कलावंतो के प्रयासों का विस्तार है और प्रसन्नता इस बात की है कि अब प्रहलादसिंह टिपानिया के कलाकर्म को सूफ़ी गायक कैलाश खेर,रंगकर्मी शेखर सेन, गुजराती लोकगीत गायक हेमंत चौहान,शास्त्रीय संगीत कलाकार  शुभा मुदगल और पं.छ्न्नूलाल मिश्र तथा दक्षिण भारतीय संगीत के कलाकार दम्पत्ति अनुराधा और श्रीराम परशुराम जैसे समकालीन लोकप्रिय कलाकारों की सराहना भी मिली है और वे सब टिपानियाजी की गायन शैली और पद चयन को लेकर लगभग अचंभित से हैं.

राष्ट्रपति भवन में पद्मश्री अलंकरण के बाद कैसा लग रहा था यह पूछने पर टिपानियाजी की आँखे भर आतीं हैं. वे कहते हैं कि मैंने कहाँ सोचा था कि एक अनजाने से गाँव से शुरू हुई मेरी यह मामूली सी यात्रा मुझे इस जगह तक ले आएगी. किंतु ये भरोसा अवश्य था कि कबीर इतने विलक्षण हैं उनके काम तो आगे बढ़ेगा ही,मेरा नाम बढ़े ना बढ़े.पद्मश्री प्रहलादसिंह टिपानिया से बतियाते वक़्त कबीरी भाव की सादगी का अहसास बना रहता है.वे तो अपने टीप भरे स्वर से निरगुनिया की टेर लगाते जा रहे हैं.शास्त्र और कायदों के झमेले में पड़े बग़ैर टिपानिया की रंगरंगीली रामगाड़ी अनहद नाद की तलाश में चलती जा रही है....अनवरत


(राष्ट्रपति भवन में पिछले दिनों आयोजित हुए अलंकरण समारोह में मालव-माटी के  इस लाल प्रहलादसिंह टिपानिया  को पद्मश्री अलंकरण से नवाज़ रहीं हैं राष्ट्रपति प्रतिभाताई पाटिल )

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